-सुभाष ‘साहिल’
“अगर आप अकेली हैं तो मैं आपके साथ एक कप कॉफी पीना चाहूंगा।” औपचारिक सम्बोधन के बाद मैंने प्रस्ताव रखा। आशा के अनुरूप उसने नज़र झुकाए ही क़दम उठाया। कैफे लगभग ख़ाली था। हम कोने के एक टेबल पर बैठ गए। कॉफी के दो चार घूंटों के साथ कुछ पल खामोशी के आसमान पर उड़ गए थे। “नीशू”…. अभी इतना ही कह पाया था मैं कि उसने हाथ के इशारे से रोक दिया।
मुझे माफ़ कर देना “सागर”…. फिर एक लम्बी-सी खामोशी।
“मैं तुमसे बिछुड़ कर बहुत रोई हूं।” सदियों के फ़ासले से जैसे कुछ शब्द सन्नाटे की छत से टपके।
मैंने चुप रहने में ही फ़ायदा समझा। उसकी आदत से वाक़िफ़ मैं जानता था कि मेरी खामोशी से ही लावा फूटेगा।
“सागर” मैं उस वक़्त नादान थी जो दौलत को प्यार से बड़ा समझ बैठी। उसकी आंखों में इतना कहते-कहते नमी सी उतर आई थी।
लेकिन तुमने भी तो मुझे नहीं समझाया…. तुम भी तो एकदम नाराज़ हो गए थे जबकि तुमने मुझसे और मैंने तुमसे नाराज़ न होने का वादा किया था। मैंने अपना वादा तोड़ दिया लेकिन तुम भी तो अपना वादा नहीं निभा पाए।
इतनी वार्तालाप होने तक उसकी आंखों की नमी आंसुओं का रूप लेकर गालों तक का सफ़र तय कर चुकी थी।
उसके आंसुओं को देखकर दिल के दूर किसी कोने में जैसे किसी जीत के अनुभव की खुशी की आवाज़ आ रही थी।
“मैं बहुत बुरी हूं सागर”…. लेकिन तुम भी कम बुरे नहीं हो। मेरी नासमझी की सज़ा देने के लिए तुमने मुझे उम्र भर तड़पाने वाले मार्ग पर जाने से नहीं रोका।
“बोलो सागर” क्यों नहीं समझाया था मुझे मेरे शादी के फ़ैसले के वक़्त? बार-बार यही दोहराती वो मेरी हथेलियों पर अपनी मुट्ठियों से मारकर अपने दिल की भड़ास जैसे निकाल रही थी।
आंसुओं से भीगी वह खड़ी होकर मुझसे एक बार माफ़ी मांग, अपने गंतव्य की ओर बढ़ने लगी।
मन में दूर से कहीं जीत के जश्न की आवाज़ों की गूंजें यह सोचने पर मजबूर किए जा रही थी….
“नीशू” ने क्या सचमुच बेवफ़ाई की थी? या बेवफ़ाई मैंने की थी?
इससे भी बड़ा एक प्रश्न जो मेरे सामने खड़ा था…. “क्या मैंने कभी प्यार भी किया था या नहीं?”