-कनु भारतीय

“सात वर्षीय बालिका से नृशंस बलात्कार।” “पांच वर्ष की बच्ची के साथ मुंह काला करने के बाद बलात्कारी ने उसके फ़्रॉक से गला घोंटकर हत्या कर दी।” “बाप द्वारा बच्ची से बलात्कार।”

इस प्रकार की घटनाओं से पत्र या पत्रिकाएं भरते चले आ रहे हैं। बच्चियों के प्रति नृशंस बलात्कारों में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। बच्चियों के यौनशोषण के लिए यह घटनाएं केवल जाने-अनजाने लोगों या ग़ैर ज़िम्मेदार अड़ोस-पड़ोस द्वारा ही अन्जाम नहीं होती बल्कि क़ुदरत ने जिस बाप को बच्ची के लालन-पालन का दायित्व सौंपा है वही बाप बलात्कारी बन बैठा।

समाज के लिए इससे अधिक शर्म की बात और क्या होगी। यह हक़ीक़त कितनी भयावह है कि अब जन्मदाता के संरक्षण में भी बच्ची की सुरक्षा की बात सोचना एकदम बेमानी है। हालांकि ऐसे उदाहरण कम ही हैं।

बलात्कार को लेकर परिस्थितियों के कारण चाहे जो भी हों गूंजती किलकारियां ख़ामोश होती जा रही हैं। बलात्कार के आंकड़े याद दिलाते हैं गिरती हुई नैतिकता और मानवीय वजूद का।

बलात्कार की शिकार बच्चियों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। आज तक जो भी वारदातें हुई हैं या हो रही हैं वह साफ़ इशारा कर रही हैं कि किन मंसूबों, आरज़ुओं और गली-सड़ी मानसिकता को लेकर हमारा समाज किस ओर जा रहा है।

लेकिन क्या इन वहशी दरिन्दों ने कभी सोचा है कि उस बालमन पर इस घटना का क्या असर होगा? उसका भविष्य क्या होगा?

अकसर बलात्कार की शिकार बच्चियां डर और कुंठा के कारण मानसिक रोग की शिकार हो जाती हैं।

इन निर्दोष मासूम बच्चियों के बलात्कार की घटनाओं के लिए दोषी कौन है? आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है? यह प्रश्‍न पुनः विकराल रूप धारण कर समाज व राष्‍ट्र के सामने है।

जिस देश में बच्चियों को देवी रूप मानकर पूजा की जाती है आख़िर कंजका रूपी उन देवी रूपों को हैवानियत के ये वहशी दरिन्दे बड़ी बेरहमी से नोच रहे हैं, इसके पीछे क्या कारण है?

मनोवैज्ञानिक संकुचित सोच व बढ़ते तनाव को ही इसकी वजह बताते हैं। मौजूदा दौर में हर व्यक्‍त‍ि तनाव का शिकार है। पैसे की लालसा ने उसकी काम शक्‍त‍ि बढ़ा दी है। उसका अपने मन पर नियंत्रण नहीं रह गया है। वह मात्र भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे भाग रहा है। ऐसे व्यक्‍त‍ि ही इन वारदातों को अंजाम देते हैं।

वर्तमान में पुरुष के चरित्र में वीभत्स गिरावट दृष्‍टि‍गोचर हो रही है। शायद यह पाश्‍चात्य तौर-तरीक़ों के अवलंबन व भौतिक मानसिकता का परिणाम है। इसके मूल में पुरुष की कामी प्रवृत्ति, असंतुष्‍ट काम भावनाएं व दानवी सोच ही कार्य करती है। यद्यपि वर्तमान का एडल्ट एटमॉसफियर इस दुष्कर्म के पीछे ज़िम्मेबार है।

क्या पुरुष की घिनौनी मानसिकता की शिकार ये मासूम बच्चियों (जो स्वयं बलात्कार की परिभाषा नहीं जानती) का मात्र शोध कर लेने से अथवा अख़बार पढ़कर गन्दी ख़बर कह देने से हमारा कर्त्तव्य पूरा हो जाता है?

स्त्रियां चाहे वह बच्ची ही क्यों न हो सिर्फ़ भोग्या बन कर रह गई है। जब कभी भी स्त्रियों के यौनशोषण की समस्या सवाल बन कर सामने आती है तो पुरुषवर्ग स्त्रीवर्ग को ही दोषी ठहराता है और स्त्रीवर्ग पुरुषवर्ग को।

व्यस्क बलात्कार के लिए स्त्रियों की आधुनिकता पर ही दोष लगाया जाता है। परन्तु यहां प्रश्‍न बच्चियों का है ये मासूम बच्चियां फ़ैशन, बलात्कार की परिभाषाओं से अनजान होती हैं वहशी दरिन्दों द्वारा खाने-पीने की चीज़ें देकर बहला-फुसला ली जाती हैं और उनकी वहशत के परवान चढ़ जाती हैं।

समाजशास्त्री इसे मानसिक रुग्णता कहते हैं तो कानून वाले इन्हें भारतीय दण्डविधान की धारा 376 बताते हैं। अख़बार और मीडिया के लिए यह एक ख़बर मात्र है।

जहां एक ओर ग्लोबल मीडिया, उदारीकरण, इंटरनेट के कारण हम सभ्य व आधुनिक होने का दम्भ भरते हैं वहीं दूसरी ओर अपनी आदिम प्रवृत्ति के कारण पाश्‍व‍िकता की हदें पार कर गए हैं और हमारी नैतिकता का मूल्य गिरता जा रहा है।

आर्थिक उदारता के साथ हमारे देश में अश्‍लील पत्र-पत्रिकाओं की खुली बिक्री, नग्नता परोसते विदेशी टी.वी. चैनल तथा पाश्‍चात्य शैली के प्रभाव में भी अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है।

क्या आज इस सच को नकारा जा सकता है कि हमारे देश में सिनेमा में तथा टी.वी. सहित जनसंचार माध्यमों पर खुलकर सेक्स दिखाया जा रहा है। नायिकाओं में जैसे अधिकाधिक अंग प्रदर्शन की होड़-सी लगी हुई है। सेक्सी स्टैम्प लगवाने के लिए ये नायिकाएं किसी भी हद तक जा सकती हैं। अतः अब इस तरह के दृश्य बार-बार दिखाए जाते हैं तो कामवासना जागृत हो जाती है और असंयमित मानव उम्र और मर्यादा को ताक पर रख कर बलात्कार जैसा अपराध कर बैठता है।

बलात्कार तथा हत्या जैसे क्रूर व घिनौने अपराध में बढ़ोतरी का अन्य एक और महत्वपूर्ण कारण अपराधियों के साथ कड़ाई से पेश न आना है। इस तरह के मामलों में न्यायलयों का फ़ैसला आने में वर्षों लग जाते हैं।

दुष्कर्म के बाद हत्या करने के मामले में मौत की सज़ा के बारे में तथा मानवाधिकार संगठनों द्वारा फांसी का विरोध स्वाभाविक है। लेकिन यौन अपराधी को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए। साथ ही इस बात की भी गहन जांच होनी चाहिए कि अपराध करने वाला वास्तव में ही अपराधी है।

कारण चाहे जो भी हो ऐसे कुकर्म कर्त्ताओं की हैवानियत को अनदेखा नहीं किया जा सकता। घर-बाहर मर्यादित, शालीन, संयमित वातावरण तैयार करना होगा। प्रशासन व मीडिया को सकारात्मक भूमिका के साथ आगे आना होगा ताकि छोटी बच्चियों के साथ दुष्कर्म एवं सामूहिक दुष्कर्म में लिप्‍त ऐसे नरभक्षी जोकि सभ्यता व संस्कृति के नाम पर कलंक है के विरुद्ध कड़ी कारवाई से इन घृणित हरकतों पर क़ाबू पाया जा सके तभी इन बच्चियों का बचपन सुरक्षित रह सकता है।

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