-विजय रानी बंसल
प्राचीन काल में महिलाएं केवल घर की चारदीवारी तक ही सीमित थी। घर-गृहस्थी सँभालना ही उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था।
परन्तु वक़्त के साथ-साथ विचारधाराएँ बदलीं, मान्यताएं बदलीं। महिलाएं घर की चारदीवारी से निकल कर बाहर की दुनियां में आयीं और उन्हें मिला शिक्षा, आज़ादी और कुछ कर दिखाने वाली सम्भावनाओं का विस्तृत आकाश। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि उनकी महत्वाकांक्षाओं को ऊँची परवाज़ देने में पुरुषों ने साथ खड़े होकर, न सिर्फ उनकी मदद की, बल्कि उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी किया। परिणामस्वरूप नारी ने भी उन सभी कार्य-क्षेत्रों पर अपना अधिकार जमा लिया जिन पर अब तक पुरुष वर्ग एक-छत्र शासन करता आ रहा था।
आज महिलाएं राजनीति, सेना, पुलिस, पत्रकारिता, लेखनकला, स्कूल-कॉलेज, डॉक्टरी और भी न जाने कितने ही क्षेत्र हैं जहां पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर काम कर रही हैं और नारी की इन महत्वाकांक्षाओं और कैरियर के चलते जो सबसे अधिक उपेक्षा का शिकार हुए हैं वे हैं बच्चे।
इसी उपेक्षापूर्ण वातावरण में पले-बढ़े बच्चे उचित देखभाल और लालन-पालन के अभाव में विद्रोही और आपराधिक प्रवृत्ति के बन जाते हैं। इस तरह से मानसिक रूप से बीमार बच्चे हमारा ध्यान एक डरावने भविष्य की ओर इंगित करते हैं।
माता-पिता चाहकर भी अपना क़ीमती समय और प्यार बच्चों को नहीं दे पाते हैं। वे केवल उनके लिए भौतिक सुख-सुविधाएं जुटाने तक ही सीमित हो जाते हैं। मां का कैरियर के प्रति आकर्षण मासूम बचपन को ‘क्रैच’ की भेंट चढ़ाने पर मजबूर हो जाता है वहाँ की मशीनी ज़िन्दगी बच्चे को मां की ममता, प्यार-दुलार और स्नेह-भरे स्पर्श से वंचित कर देती है।
ऐसा नहीं है कि काम काजी महिलाओं में ममता का अभाव होता है या वे अपने बच्चों को चाहती नहीं है। बल्कि सच्चाई यह है कि इनके कैरियर, महत्वाकांक्षा और ममता के बीच अन्तर्द्वन्द्व चलता रहता है और अन्तत: कैरियर ममता पर विजय पा लेता है और उसका पलड़ा भारी हो जाता है।
बाल मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि बच्चे के शुरू के पांच साल उसके जीवन के सबसे महत्वपूर्ण साल होते हैं। यदि बचपन में उन्हें किसी कारण वश मां की ममता से वंचित रहना पड़ता है तो इस बात की बहुत अधिक सम्भावना रहती है कि बच्चे का पूरा जीवन कुंठित हो जाए या फिर वह अापराधिक प्रवृत्ति का हो जाए। यही कारण है कि आज बाल मनोरोगियों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। एक तो शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती प्रतियोगिताओं का तनाव और ऊपर से मां-बाप का सानिध्य न मिल पाने का दुख झेलता बाल मन दिशाहीन होकर ग़लत राह की ओर मुड़ जाता है।
नंदिनी का बेटा जब मात्र तीन माह का था तो उसका चयन ऑस्ट्रेलिया के एक संस्थान में हो गया। नंदिनी ने एम.बी.ए किया था। पति सरकारी नौकरी में प्रतिष्ठित पद पर थे। गाड़ी-बंगला, नौकर-चाकर घर में हर तरह की सुविधा थी। मगर नंदिनी विदेश जाने का लोभ संवरण नहीं कर पायी। बच्चे को साथ नहीं ले जा सकती थी, यह बात उसे कचोट रही थी। पर सिर्फ ममता की ख़ातिर वह अपने सुनहरे भविष्य को दाव पर लगाने के लिए कतई तैयार न थी। उसका तर्क था कि जब उनका कैरियर अच्छा होगा तभी तो बच्चे का भविष्य उजला बना पायेंगे।
आज अधिकांश पढ़ी-लिखी महिलाओं की यही विचारधारा है कि इतना पढ़-लिख लेने के बाद भी यदि वे केवल घर-गृहस्थी व बच्चों की ही देख-भाल करतीं रहें तो इतनी पढ़ाई लिखाई का क्या लाभ? इसलिए आज ज़्यादातर महिलाएं कैरियर के लिए ममता को दाव पर लगा रहीं हैं और उन्हें ‘डे-बोर्डिंग’ या ‘क्रैच’ के हवाले करके अपने कर्त्तव्य की इति श्री कर लेती हैं।
नारी को मां बनने की शक्ति के कारण ही आदर व श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है। उसमें वात्सल्य व ममता की अधिकता होती है तभी तो बच्चों के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी उसे सौंपी गयी है। पर न जाने कैसे, पुरुष वर्ग में नारी के प्रति आदर व श्रद्धा के भाव तिरोहित होते चले गये। उसकी नज़र में नारी का बच्चे पैदा करना और पालना किसी तुच्छ कार्य से अधिक नहीं रह गया। इससे नारी का अहम् आहत हुआ और उसका विवेक जाग उठा।
पुरुषों के प्रति उसके मन में प्रतियोगिता का भाव जाग उठा और अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए उसने चुनौती स्वरूप बाहर की दुनियां में पदार्पण किया।श्रेष्ठता की इस होड़ में भौतिकता प्रथम हो गयी और वात्सल्य, ममता गौण होते चले गये और बच्चे अपनत्व के माहौल से दूर हो गये। और आज कैरियर की होड़ में एक ऐसी संवेदन-शून्य पीढ़ी तैयार की जा रही है जो स्वस्थ भविष्य के निर्माण की नींव पर एक प्रश्न-चिह्न की तरह खड़ी है।
इसलिए, इससे पहले कि एक कलंकित समाज का निर्माण हो, स्त्री/पुरूष को समाज निर्माण के प्रति अपने दायित्वों को पहचानना होगा। यह बात कभी न भूलें कि एक पढ़ी-लिखी समझदार मां यदि बच्चों के साथ है, तो इसमें कोई दो राय नहीं कि वे दिन दूनी रात चौगुनी तरक्क़ी करेंगे। बच्चों को सही दिशा दिखाना भी एक बहुत बड़ा काम है।
इसलिए इस बात का मलाल न करें कि आप पढ़-लिख कर भी घर बैठी हैं, नौकरी नहीं कर रहीं। हर पढ़ी-लिखी मां के लिए नौकरी करना ज़रूरी नहीं है। हाँ, यह अवश्य है कि हर महिला को स्वयं को इस लायक ज़रूर बनाना चाहिए कि ज़रूरत के समय आत्म-निर्भर हो सके और अपने परिवार का भरण-पोषण खुद कर सके।
इस बात का सदैव ख़्याल रखें कि बच्चों की देख-भाल और उनमें उच्च-संस्कार पैदा करने से बड़ा कोई कैरियर नहीं है। जब तक बच्चे सामर्थ नहीं हो जाते, कैरियर को दाव पर लगाना ही होगा। कुछ समय के लिए ही सही, ममता का पलड़ा कैरियर पर भारी रखना होगा न कि कैरियर का पलड़ा ममता पर।