-धर्मपाल साहिल

भारत एक समृद्ध एवं सुसंस्कृत परम्पराओं वाला देश है, जिस कारण विश्व भर में भारत की एक विलक्षण पहचान बनी है। इन्हीं परम्पराओं में एक है विवाह परम्परा। प्रजातियों की निरन्तरता एवं अनुवांशिक विकास हेतु समाज शास्त्रियों ने परिवार गठन के कुछ नियम गढ़े और सदियों से हमारा समाज इस परम्परा का पालन करता आ रहा है। आरम्भिक काल से अब तक सामाजिक एवं वैज्ञानिक विकास के साथ इस प्रथा में कुछ परिवर्तन भी हुए हैं। भारत में भारतीय नागरिक को संवैधानिक रूप से एक जीवित पत्नी, पति रखने का अधिकार दिया गया है। भारत में बिना सहमति के विवाह-विच्छेद एक कठिन एवं पीड़ादायक प्रक्रिया है। इस के विपरीत पाश्चात्य समाज में विवाह परम्परा में बंध कर प्रतिकूल स्वभाव एवं परिस्थितियों से बचने हेतु झटपट तलाक़ ले लिया जाता है। उम्र भर के तनाव एवं क्लेश से मुक्ति प्राप्त कर ली जाती है। विवाह उपरान्त या पूर्व शारीरिक सम्बंधों के चिंतन को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता।

पश्चिम की आंधी को भारतीयों ने आत्मसात् कर लिया है। जहां भारतीयों ने उनकी भाषा, वेशभूषा, तकनीक आदि को अपनाया है वहीं उनके रहन-सहन, रीति-रिवाज़ों को भी अपनाना शुरू कर दिया है। विशेष कर नयी पीढ़ी इस का अंधानुकरण करने में अपनी शान समझने लगी है। शहरों में ही नहीं बल्कि गांवों में भी लोग इस विदेशी चकाचौंध से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए हैं। मीडिया द्वारा इसका प्रचार एक उत्प्रेरक का कार्य कर रहा है या फिर रोज़गार के सिलसिले में विदेशों में गये लोग ऐसी सोच अपने साथ लेकर लौटते हैं।

ऐसी ही कई बातों में एक है ‘बिन शादी के जोड़ों का प्रचलन।’ वह रहते और करते तो सभी कुछ एक पति-पत्नी की तरह हैं बच्चे भी पैदा करते हैं, लेकिन कहलाते मित्र हैं और समाज में उन्मुक्त जीवन गुज़ारते हैं। ऐसे जोड़ों का चलन भारत में भी बढ़ रहा है। ऐसे जोड़ों का तर्क है कि उन के बीच सच्चे मित्र का जादुई रिश्ता है। इस जादू के आकर्षण में वे बंधे हैं। जिस दिन वे शादी कर लेंगे, उन का यह करिश्माई रिश्ता एवं आकर्षण समाप्त हो जाएगा। एक-दूसरे के प्रति कशिश समाप्त हो जाएगी। ये लोग विवाह को घिसी-पिटी परम्परा बता कर इस से ऊब गये बताते हैं। समाज उनके बारे में क्या कहता है, सोचता है, इसकी उन्हें परवाह नहीं है। वे विवाह को शादी, बच्चे-शादी वाली एक परम्परागत प्रक्रिया समझते हैं। कई मामलों में वे बच्चे पैदा करना ही नहीं चाहते और अपनी स्वतंत्रता को बरकरार रखना चाहते हैं। न उन्हें अपने बच्चों को समाज में एडजस्ट करने की चिन्ता है, वे उन्हें भी अपनी ही तरह का जीवन जीने की छूट प्रदान करते हैं। बिना शादी के ऐसी औरतें स्वयं को तनाव रहित, अधिक स्वतन्त्र एवं शक्तिशाली अनुभव करती हैं। ये शादी के उपरान्त पति द्वारा पत्नी को अपनी सम्पत्ति समझने तथा अधिकार जताने यानी हर एक प्रकार के शोषण के विरुद्ध हैं। इन जोड़ों की सब से बड़ी बात कि ऐसे मित्र के साथ अनबन होने या ऊब जाने पर ये झटपट नया मित्र बनाने से गुरेज़ नहीं करते। इसे जीवन में घटी आम-सी घटना समझ कर भूल जाते हैं और पहले से अधिक सशक्त ‘अन्डर्स्टेन्डिंग’ वाला मित्र चुनने का दावा करते हैं। उन्हें इस बात से कुछ लेना-देना नहीं होता कि वे पहले कितनी और कितनों से दैहिक संबंध बना चुके हैं। ऐसे परिपक्व, मुकम्मल अन्डर्स्टेन्डिंग वाले मित्र का चुनाव उम्र भर चलता रहता है। वे अपनी बातों, यादों तथा वायदों को हृदय से लगाए नहीं घूमते। और तो और जब पुराने मित्रों से मुलाक़ात होती है तो वे उसे एकदम सहजता से लेते हैं। उनके हृदय में बीती बातों, बीते दिनों के गुज़ारे क्षणों की पीड़ा जैसा कुछ भी नहीं होता। वे बार-बार औरत-मर्द बदलने वाली छवि को चरित्रहीनता नहीं समझते। वे चरित्र का अर्थ सिर्फ़ दैहिक संबंधों को ही नहीं, बल्कि वे अन्य गुणों को भी मानते हैं। उन्हें कभी लज्जा अथवा हीनता का एहसास नहीं होता। आर्थिक एवं लैंगिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत तू नहीं और सही, और नहीं और सही की पक्षधर परम्पराओं का चलन क्या भारतीय संस्कृति के अनुकूल बैठता है, इस पर चर्चा करने की आवश्यकता है।

रोटी, कपड़ा और मकान की तरह सेक्स भी मनुष्य की एक मूलभूत आवश्यकता है। समाज में औरत-मर्द को पशुओं की तरह निरंकुश व्यवहार से रोकने हेतु ही विवाह परम्परा का जन्म हुआ। औरत-मर्द के लिए ऐसे नियम एवं बंधन बनाए गये, जिस की प्रत्येक औरत-मर्द, पति-पत्नी पालना करे और समाज में अराजकता न फैले। ‘माइट इज़ राइट’ की भावना से कुछ शक्तिशाली का ही प्रभुत्व न बन कर रह जाए। हमारे पौराणिक ग्रंथ ‘रामायण’ माता-पिता, भाई-भाई, पिता-पुत्र आदि के रिश्तों के आदर्शों से भरा पड़ा है।

भारत में पति-पत्नी को जीवन रूपी गाड़ी के दो आधारभूत पहिए माना गया है। दोनों में शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक संतुलन आवश्यक है। यौवनावस्था में जब केवल दैहिक आकर्षण शिखर पर होता है। बाक़ी अन्य बातों को सोचने-समझने का होश कम होता है। ऐसे में बच्चों द्वारा स्वयं लिए जाने वाले फ़ैसलों के फलस्वरूप उन में पैदा होने वाली भटकन, तनाव आदि से बचने के लिए घर-परिवार के अनुभवी माता-पिता बुज़ुर्ग प्रत्येक पहलू से सोच समझ कर संतुलित रिश्ते ढूंढ़ने और छोड़ने का प्रयास करते हैं। युवक-युवतियों के संस्कारों एवं उनके भविष्य का आकलन उनकी जन्म कुंडलियों से भी किया जाता है। समाज के कई वर्ग बेशक इन बातों पर विश्वास नहीं करते, इसकी आड़ में काफ़ी कुछ ग़लत भी होने लगा है। फिर भी आरम्भ में इस के पीछे मूलभूत कारण विवाह बंधन में बंधने वाले युवक-युवती के मंगलमय वैवाहिक जीवन से ही था।

भारतीय संस्कृति में सच्चे मित्र ‘पति-पत्नी’ का पर्यायवाची नहीं हैं और न कभी हो सकता है। विदेशों में पहले प्रेम फिर शादी और भारत में पहले शादी फिर प्रेम की प्रथा है। अगर वे पहले ही एक दूसरे को इतनी अच्छी तरह समझते हैं, प्रेम करते हैं तो फिर उन में तलाक़ की नौबत इतनी जल्दी क्यों आ जाती है? क्यों वे एक-दूसरे से इतनी जल्दी बोर होकर नये साथी की तलाश आरंभ कर देते हैं, दरअसल इसके पीछे है उनकी पशुओं जैसी उन्मुक्त लैंगिक सोच, जिस के वशीभूत होकर ही वे ऐसा करने के लिए मजबूर होते हैं।

नदी और नारी जब अपनी सीमा तोड़ती है तो फिर उसकी कोई सीमा नहीं रहती। वह विनाश ही करती है। भारतीय वैवाहिक परम्परा में जो बंधन लगाए गये हैं, वे ही हमारे समाज को अभी तक बचाए हुए है। हमारी जीवन धारा एक सीमा में रह कर अपनी निश्चित दिशा की ओर बह रही है। वर्णों, जातियों, धर्मों के आधार पर बंटे भारतीय समाज में उचित रिश्तों को ढूंढ़ पाना अपने आप में एक समस्या बनता जा रहा है। वहां ऐसे ‘सच्चे मित्रों’ की सन्तान को कौन अपनाएगा?

उनका जीवन भी सच्चे मित्र की तलाश में बीत जाएगा। वे समाज में कुंठित, तनाव ग्रस्त जीवन गुज़ारने के लिए बाध्य होंगे। अपने कथित माता-पिता के कर्मों की सज़ा उन्हें भुगतनी पड़ेगी।

ऐसे जोड़ों में औरत का स्वयं को स्वतन्त्र एवं शक्तिशाली समझना “दिल बहलाने के लिए ग़ालिब ये ख़्याल अच्छा है” वाली बात लगती है। औरत-मर्द यह लोक हो या परलोक, स्वाभाविक तौर पर वे जिसे चाहते हैं, प्यार करते हैं उस पर अपना अधिकार ही समझते हैं। औरत-मर्द एक-दूसरे के पूरक हैं तो सामूहिक तौर पर ‘एक और एक ग्यारह’ का मुहावरा भी सिद्ध होना स्वाभाविक है। अधिकार की भावना से किसी की भावनाओं या देह को बलपूर्वक रौंदना, भारतीय संस्कृति अथवा समाज कदापि आज्ञा नहीं देता। पुरुष अपनी शक्ति, पद, कद और मर्दानगी के वशीभूत अगर ऐसा करता भी है तो वह अपराधी है। अधिकांश पुरुष ऐसे नहीं होते हैं। ‘अपवाद तो हर जगह पाये जाते हैं।’ जिन के कारण समाज बदनाम होता है। विदेशी संस्कृति में औरत को स्वतंत्रता के नाम पर जितना सेक्स की मशीन समझ गया है उतना भारत में नहीं। यहां मर्यादा नाम की चीज़ पति-पत्नी में भी पाई जाती है।

बिन विवाह के जोड़ों में सब से बड़ा ख़तरा यह है कि उनमें कोई कानूनी लिखत-पढ़त नहीं होती। उन दोनों के बीच केवल मौखिक समझौता होता है। ऐसे संबंध व्यक्तिवाद को बढ़ावा देते हैं। समाज की असहमति एवं उनकी नज़रों से छिप कर पनपते रिश्तों को समाज परवानगी नहीं देता और न ही इनमें उस की कोई दिलचस्पी होती है सिवाए नमक-मिर्च लगाकर चटखारे लेने के।

जब जी चाहा अलग हो गये जब जी चाहे, जिसे चाहा नया साथी चुन लिया। जीवन में स्थिरता नाम की चिड़िया फुर्र। अपने साथियों से खुलापन। ऐसे रिश्तों में निज प्रभावी है। जब तक निज की स्वार्थपूर्ति होती रहती है तब तक ठीक है, उसके बाद तू कौन और मैं कौन वाली स्थिति। न भावनात्मक संबंध, न पारिवारिक ज़िम्मेदारियों का एहसास। भारतीय संस्कृति में विवाह के समय अनेक ऐसी छोटी-छोटी रस्में हैं जिन के तार परिवार के विभिन्न सदस्यों के साथ अत्यन्त सूक्ष्मता से जुड़े हुए हैं। इसकी पृष्ठभूमि में रिश्तों की महत्ता, नैतिकता, शिक्षा तथा प्रेरणा छिपी होती है। जो ऐसे सच्चे मित्रों के मिलन के समय कहां? शादी के बाद भी पत्नी का पति और पति का पत्नी हेतु प्रेम, उत्तरदायित्व कई व्रतों, त्योहारों तथा धार्मिक परम्पराओं के माध्यम से जोड़ा गया है। जो अपने आप में बेमिसाल है तथा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता, भारतीय संस्कृति में विवाह परम्परा की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उन्हें पश्चिम की आंधी एकाएक उखाड़ने में सक्षम नहीं है। हमारी आबोहवा, मिट्टी, लहू और संस्कारों में रच-बस चुकी बातें ‘सच्चे मित्रों’ के थोथे तथा आधारहीन तर्कों से झुठलाई नहीं जा सकती।

जीवन में बार-बार जीवनसाथी को बदलने की नैतिकता को चरित्रहीनता नहीं तो और क्या कहा जा सकता है। फिर ऐसे औरत-मर्दों तथा जानवरों में अंतर ही क्या रह गया है? निःसंकोच कहा जा सकता है कि भारत में बिन विवाह के जोड़ों के चलन को भारतीय समाज कभी मान्यता प्रदान नहीं करेगा। इन्हें अवैध संबंधों की संज्ञा से ही जाना जाएगा। जो लोग इस पद्धति की नक़ल करेंगे उन्हें एक दिन पश्चाताप की अग्नि में जलना पड़ेगा।

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