-धर्मपाल साहिल

दुनिया भर में औरत शब्द में आज भी उतना ही जादू क़ायम है, जितना सदियों पूर्व था। हज़ारों वर्ष बीत गये। समाज बदले, व्यवस्थाएं बदली, सभ्यताएं बदलीं। धार्मिक जनून हावी हुआ। विज्ञान ने प्रगति के शिखर छुए। राजनैतिक उथल-पुथल हुई। धरती पर आए बड़े-बड़े परिवर्तनों के बावजूद औरत शब्द एक ऐसा अद्भुत करिश्मा बना हुआ है, जो दिन प्रति-दिन और भी आकर्षक तथा रहस्यमयी होता गया है। मर्द द्वारा औरत को वस्तु बना कर, उस पर अधिकार जमाने की कोशिश के बाद भी औरत और मर्द का रिश्ता बासी नहीं हुआ है। इस के विपरीत औरत के लिए मर्द की तड़प, ललक संस्कृति-सभ्यता के बदलाव के साथ और भी बढ़ी है। मर्द उसे समझने की जितनी भी कोशिशें करता गया, उस ने इस रहस्य से जितने भी पर्दे उठाए, उतनी ही व्याकुलता और बढ़ती जाती है। प्रत्येक रूप में औरत का आकर्षण, ताज़गी, उत्तेजना, विह्वलता पूरे यौवन पर बरकरार है। कलाकार मूर्तियों द्वारा, चित्रकार चित्रों द्वारा, कवि कविताओं द्वारा, गीतकार गीतों द्वारा, संगीतकार संगीत द्वारा औरत की वन्दना, प्रशंसा, रूप का वर्णन करता नहीं थकता। फिर भी यह विषय सागर से गहरा, आकाश से ऊंचा तथा धरती से विशाल होता गया है। इस की कोई सीमा निश्चित नहीं की जा सकती। औरत-मर्द के सम्बन्धों का क्षितिज-ब्रह्मांड के सभी क्षितिजों से ऊपर विस्तृत है।

हमारा इतिहास और सभ्यताएं गवाह हैं कि मर्द ने औरत को कभी देवी बना कर पूजा, कभी दासी बना कर मसला-कुचला, कभी उस के लिए तख़्तोताज न्योछावर किये, कभी औरत को जीत कर राज सिंहासन प्राप्त किये, कभी उस के लिए युद्ध लड़े, कभी उसे शिक्षा से वंचित रखा, कभी दीवारों में क़ैद रख कर उस पर अमानवीय अत्याचार किये। फिर भी औरत का जादू, मर्द के सिर चढ़ कर बोलता रहा तथा बोल रहा है।

औरत एक पहेली है। एक अबूझ रहस्य है। औरत के इस रूप के पीछे शायद यही कारण है कि वह जानने से अधिक समझती है। औरत जल्दी से अपने आपको प्रकट नहीं करती। वह मन की भावनाओं को पूरे नियन्त्रण में रखती है। हो सकता है आदि काल में औरत का व्यवहार ऐसा न होता हो। क्योंकि धरती पर सभ्यता के आरिम्भक काल में परिवार औरत केन्द्रित थे। घर की मुखिया औरत होती थी। घर का संचालन औरत करती थी। निश्चित तौर पर उस समय औरत अपने गुणों को खुल कर प्रकट करती होगी। पर जैसे धरती पर समाज मर्द प्रधान होता गया, उसने औरत पर हावी होने के लिए ऐसे सामाजिक नियम बनाए ऐसे वातावरण का सृजन किया कि परिवार पुरुष केन्द्रित होते गये। और औरत दूसरे स्थान पर रखी गई, फिर धीरे-धीरे औरत हाशिये पर आ गयी। ऐसे बंधन युक्त हालात में उसे स्व प्रकट करने का अवसर ही नहीं दिया गया। औरत से उस की स्वाभाविक बोली ही छीन ली गयी। जिस के द्वारा वह अपने विचार प्रकट कर सकती थी। फिर लज्जा, हया या मौन को औरत का गहना बताया गया। जब औरत की यह कथित लज्जा, शर्म और मौन पुरुष को उस के साथ एकांत के पलों में शारीरिक सुख प्राप्त करने में अवरोध बनने लगा या औरत की पूरी भागीदारी की कमी महसूस होने लगी तो शास्त्रों में औरत के लिए श्लोक लिखे गये कि वह बिस्तर पर पति के साथ वेश्या की भांति वाचाल एवं निर्लज्ज होकर सहयोग करे तथा पति को काम सुख से सन्तुष्ट करे। औरत की चुप को उस की अर्ध स्वीकृति समझा गया। इस प्रकार औरत के न बोलने से उस के विचार दबते गये या कह लो कि औरत की वैचारिक नसबंदी किये जाने के बाद ही औरत ने चुप की भाषा का सहारा लिया। धीरे-धीरे पीढ़ी दर पीढ़ी वह चुप की भाषा बोलने में पारंगत होती गयी। आंखों, होठों, गर्दन, हाथों तथा अन्य अंगों द्वारा मन की गुप्त बातें कहना उसकी मजबूरी बनती गयी। जो निरन्तर विकास की प्रक्रिया से निकल औरत जात के व्यक्त‍ित्व का अंग बन गयी। उधर संकेतों की इस भाषा को समझना पुरुष के लिए उतना ही कठिन होता गया। शायद इसी लिए किसी शायर को लिखना पड़ा-

जब औरत जवां होती है

हर अदा ज़ुबां होती है।

औरत जितना प्रकट करती है। आइसबर्ग की भांति उससे कहीं अधिक छिपा लेती है, इस छिपाए हुए को जानना, समझना, सोचना आसान काम नहीं है। इसी में ही औरत की खूबसूरती आकर्षण एवं रहस्य छिपा हुआ है। एक अच्छी साहित्यिक बानगी का गुण होता है कि वह कहती कम है छिपाती अधिक है। रचना की अनकहेपन की लज़्ज़त पाठक को वह रचना पढ़ने के लिए मजबूर भी करती है और आकर्षित भी करती है, सोचने के लिए विचार भी करती है। यदि औरत को श्रेष्ठ साहित्यिक रचना कह दिया जाए तो अतिश्योक्त‍ि नहीं होगी।

पुरुष का स्वभाव इस से एकदम विपरीत है वह बोलता अधिक है करता कम है। मर्द, औरत के जितना अधिक निकट होने का दम भरता है, दरअसल वह औरत से उतना ही दूर होता है औरत के इस थोड़े को अधिक समझ कर सब्र करने के सिवा उस के पास अन्य कोई चारा भी नहीं है। एक ही डाली के दो फूल होकर हमेशा साथ-साथ रह कर भी जानी-पहचानी होकर भी औरत उस के लिए उतनी ही बेगानी-अन्जानी बनी रहती है। औरत का कम बोल कर अधिक कह जाना, मर्द को उस के बारे में अधिक बोलने के लिए मजबूर करना किसी करिश्मे से कम नहीं है।

आख़िर औरत में ऐसा क्या है कि औरत के ज़िक्र या झलक मात्र से मर्द का दिल बेचैन हो उठता है। उसके शरीर में बिजली-सी दौड़ जाती है। हृदय के तार झन-झना उठते हैं। धड़कन बेक़ाबू हो उठती है। रोम-रोम रोमांच से भर उठता है। सारा स्नायु तन्त्र उतेजना से कांप उठता है। रगों में दौड़ता लहू गति पकड़ लेता है। दिमाग़ सुधबुध खो बैठता है आख़िर ऐसा क्या है औरत में कि भोजन खा-पी कर पेट भरे मर्द के समक्ष और स्वादिष्ट व्यंजन रख दिये जाएं तो वह हाथ जोड़ कर न कर देता है, लेकिन औरत के मामले में वह भूखा ही रहता है। इतना ही नहीं, नई-नई औरतों के लिए उसकी भूख बढ़ती ही जाती है। मर्द की सन्तुष्टि‍ का कोई किनारा नहीं मिलता है। हो सकता है औरत-मर्द की मानसिक कमज़ोरी हो। फिर भी कुछ न कुछ औरत के पास ऐसा है जो आग में भी घी का काम करता है और वह मर्द को लट्टू की भांति घूमने पर मजबूर कर देती है।

कुछ लोगों का विचार होगा कि औरत के इस करिश्मे के पीछे उसका शरीर है। जो औरत सुन्दर है (वैसे यौवन में हरेक औरत सुन्दर होती है) तो किसी और चीज़ के बारे में सोचने की आवश्यकता नहीं है। बस उसे चाहिए कि वह अपनी सुन्दरता बरकरार रखे। दुनियां भर की नेमतें उसके क़दम चूमने के लिए तैयार-बर तैयार रहेंगी। हालांकि कई बार यही सुन्दरता उसके दुःखों में वृद्धि भी करती है और विनाश का कारण भी बन जाती है। आधुनिक समय में इस तर्क से सहमत हुआ जा सकता है कि आज की औरत के जादू के पीछे, हरेक औरत की एक-दूसरे से बढ़ कर सुन्दर दिखने की प्रतिस्पर्धा है। मन की सुन्दरता को और कोई नहीं देखता। हर जगह मन या योग्यता के स्थान पर तन की सुन्दरता को प्राथमिकता दी जा रही है। मामला शादी-विवाह हो या रोज़गार का। इस सुन्दरता का पैमाना भी वही है जो आजकल सुन्दरता मुक़ाबलों में निश्चि‍त किया गया है। हालांकि आयोजक कुछ प्रश्नों के उत्तरों के द्वारा औरत की भीतरी सुन्दरता को मापने का दावा करते हैं, लेकिन वह भी औपचारिकता से बढ़कर कुछ नहीं है। वास्तव में वहां भी देह ही हावी होती है या और कुछ…?

मर्द ने औरत को अपने हाथों की कठपुतली बना कर उसे अपने इशारों पर नचाया है। औरत नाचती भी है फिर भी प्रत्येक अग्नि परीक्षा से निकल कर वह और निखरी है। आज की उपभोगतावादी संस्कृति को ही ले लो जिस के लिए वे सोने की चिड़िया सिद्ध हो रही हैं। ज़रूरी ग़ैरज़रूरी सभी विज्ञापन औरत के बिना अधूरे हैं। इसे एक प्रकार से औरत के शोषण का नाम भी दिया जा सकता है। लेकिन औरत ने इसे भी स्वीकार किया है तथा अपना करिश्माई जादू बरक़रार रखा है।

औरत बेशक विज्ञापन मॉडल है या फ़िल्मी अदाकारा, चाहे घरेलू है या कारोबारी, चाहे पत्नी है या रखैल, वेश्या है अथवा कॉलगर्ल, कुंवारी है या सन्यासिनी, सुहागन है या विधवा, तलाक़शुदा है या अविवाहित, प्रेमिका है या दोस्त, लेखिका है या कलाकार, राजनेता है या समाज सेविका, काली है या गोरी, लम्बी है या छोटी, मोटी है या पतली, बात यह है कि वह प्रत्येक रूप में दुनिया भर के पुरुषों की आंख का तारा बनी हुई है। भयानक ईर्ष्या, घृणा, शोषण, प्रेम, प्रतिस्पर्धा, ज़िल्लत, थकावट, हार, अपमान, घुटन, अतृप्ती तथा दमन के बावजूद औरत ने अपना अस्तित्त्व नहीं खोया है। वह असुरक्षित हो कर भी सुरक्षित है। दबाए जाने पर और उभरी है। मर्द को जन्म दे कर उसे मां, बहन, पत्नी, प्रेमिका, दोस्त, भाभी अन्य कई रिश्तों में बांधा हुआ है। उसने पुरुष को अपने बिना अधूरेपन के एहसास से भर दिया है। बिछुड़ने का डर पैदा करके अपनी आवश्यकता को क़ायम रखा हुआ है। औरत ऊर्जा और प्रेरणा का कभी न ख़त्म होने वाला स्त्रोत है। प्रेम की सच्ची-सुच्ची मिसाल है तथा दर्द की अकथ कहानी भी है। शायद यही विशेषता है उस के चुम्बकीय व्यक्त‍ित्व की, जिस कारण वह आदि काल से एक करिश्मा बनी हुई है और बनी रहेगी। भविष्य में औरत शब्द का जादू बढ़ेगा ही, घटेगा नहीं और साहिर लुधियानवी के इन शब्दों को मर्द हमेशा गुनगुनाता रहेगा-

कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है

कि जैसे तुझ को बनाया गया है मेरे लिए।

तू अब से पहले सितारों में बस रही थी कहीं

तुझे ज़मीं पे बुलाया गया है मेरे लिए।

 

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