-रमेश सोबती

इस देश में स्त्रियों के प्रति हिंसा गर्भ से ही आरम्भ होती रही है, जो जीवन भर रहती है। जन्म से पहले ही लिंग चयन और इस के परिणाम स्वरूप बालिका-शिशु भ्रूण की हत्या हिंसात्मक हद तक बढ़ जाती थी, जिस से महिलाओं की स्थिति दिन-ब-दिन दूभर होती गई। लैंगिक आधार पर हिंसा का कोई कृत्य जिस से महिलाएं शारीरिक, यौन-सम्बंधी या मनोवैज्ञानिक क्षति से हमेशा ग्रस्त रही। स्त्रियों को इस दयनीय स्थिति से बाहर लाने के लिए एक समयोचित कार्यक्रम को अपनाए जाने पर बल दिया गया और सामाजिक दृष्टिकोण में मूल परिवर्तन की आवश्यकता समझी गई। स्वयं सेवी संगठनों द्वारा सक्रिय पहल और समन्वित किए जाने की तत्काल ज़रूरत को देखते हुए सरकारी एजेंसियों ने सक्रिय ढंग से काम करना भी आरम्भ कर दिया और यह एक सुखद घटना समझी गयी। लेकिन इस पर पूरे समाज को भी समन्वित प्रयास करना था नहीं तो नकारात्मक प्रवृत्तियों को बल मिलना संभव हो जाता जिस से महिलाएं आमतौर पर घरेलू हिंसा की ही शिकार हो जाती। उन को कानूनी समाधान भी नहीं मिल पाता, क्योंकि हिंसक पति किसी न किसी बहाने अपनी पत्नी पर मानसिक कुठाराघात करने की कोशिश करता ही रहता है। हमारी सामाजिक मनःस्थिति में तबदीली लाने के लिए प्रत्येक व्यक्त‍ि को अपना महत्वपूर्ण योगदान देना आवश्यक समझा गया।

स्त्री की मूल प्रकृति और सामाजिक आकृति में शुरू से ही असमानता रही है। स्त्री की प्रकृति के प्रति वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि वह लचीली, कुशाग्र, ईमानदार एवं बहुत मेहनती है, वह पुरुष की बनिस्बत अधिक उत्तरदायित्व आ जाने पर पूरी ज़िम्मेदारी को अपने घरेलू दिनचर्या में सम्मिलित कर लेती है। और तथ्य यह भी बताते हैं कि हिंसा एवं प्रताड़ना की शिकार महिलाएं अक्सर रोगी रहने लगती हैं। इसलिए वह अपने बारे में इस आधारभूत तथ्य को जाने, अपनी ताक़त को पहचाने। यह जानना और समझना उसके लिए आत्मज्ञान का आवश्यक अंग है। समाज द्वारा निर्मित आकृति जिस का आधार समाज में प्रचलित मूल्य, प्रथाएं, दूसरी शक्त‍ियों और कारणों द्वारा बनाए नियम हैं। ये नियम स्त्री को कमतर या हीन बनाने के लिए नहीं बनाए गए, बल्कि सामाजिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से जो दिशाएं उपस्थित रहीं उस के चलते बनाए गए हैं। कुछ कारणों से स्त्री की स्थिति पर ध्यान नहीं दिया गया, जिसे पुरुष वर्ग स्वीकार करता है और यही कारण है कि मौजूदा स्थिति में बहुत परिवर्तन हुआ है। अब स्त्री में अात्मवि‍श्वास बढ़ता जा रहा है और उसका आत्म-प्रत्यय भी विकसित होता जा रहा है। वह अपना प्राकृत समर्थ रूप पाने की जद्दोजेहद की पसोपेश में है और उस का कार्यक्षेत्र दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस समय सारे संसार का ध्यान इसी ओर लगा है कि स्त्री की श्रेष्ठता उस के कार्यक्रम में सशक्त रूप से प्रकट हो। इस मंतव्य से समाज में स्त्रियों की स्थिति और उन के लोकतांत्रिक तथा मानवीय अधिकारों के बारे में क्रान्तिकारी पुनर्विचार, चिंतन होने लगा है। इस वैचारिक हलचल के चलते कानून, विकास योजनाओं तथा चुनावी राजनीति में कुछ महत्वपूर्ण नए क़दम भी उठाए जा रहे हैं। लेकिन अभी भी स्त्रियों की स्थिति को लेकर समाज सुधार और प्रतिगामी परम्परा के प्रति द्विमुखी खिंचाव हर जगह दिखता है। महिलाओं को लेकर परिवार के भीतर पुरुष की प्रभुता का स्वीकार, शिक्षा के क्षेत्र में स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्त्व के ऊपर उस के पारम्परिक गृहिणी तथा मातृत्व के रोल की महत्ता, कानून में स्त्री को पराश्रयी मानने का रुझान और सामाजिक जीवन में स्त्री की यौन-शुचिता पर अत्यधिक बल, इन बातों पर विचारों का समावेश हमारे समाज सुधार आंदोलनों में धीरे-धीरे हो रहा है। ये महिलाओं की स्वायत्तता के लिए शुभ संकेत हैं।

भारतीय मानस में स्त्री की प्रतिमा अनंत क्षमाशील परम सहिष्णु, सतत प्रेममयी, देवी या मां की है, इसलिए इस धरती की उपमा भी दी जाती है, जबकि पुरुष की तुलना देवता या पिता या आकाश से अंशतः ही दी जाती है। महाभारत में यक्ष के पूछे प्रश्नों में युधिष्ठर का आख्यान सब से महत्वपूर्ण माना गया है और इसे नकारा नहीं जा सकता। भारतीय मानस ऐसी किसी स्थिति को सहज स्वीकार नहीं करता जहां स्त्री की इन छवियों में कोई भी दरार नज़र आती हो। बंगाली लेखक बंकिमचन्द्र चटर्जी ने अपने उपन्यास ‘आनंदमठ’ में ‘सुजलां सुफलां मलयज-शीतलाम शस्य-श्यमालां मातरम्’, ‘स्त्री के कोटि-कोटि संतानों की कंठों से हुंकार उठवाया’, ‘मां की तुमि अबलें’ स्त्री की प्रतिमा वीरांगना, वीरप्रसु और वीरमाता के रूप में प्रतिष्ठापित हुई।

वैदिक साहित्य के अध्ययन से यह उदघाटित होता है कि उस समय की नारी को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मर्दों के समान ही अधिकार और अवसर सुलभ थे और इस काल में नारी अत्यंत पूजनीय थी, सर्वत्र नारी का आदर होता था कोई भी कर्म-कांड नारी की उपस्थिति के बिना पूर्ण नहीं होता था। यहां तक कि यज्ञादि में भी नारी की उपस्थिति अनिवार्य थी उस समय यह कहावत चरितार्थ होती थी, ‘यत्र नारी पूज्यते, रम्यन्ते तत्र देवता’। साहित्य, संस्कृति एवं विद्या के क्षेत्र में पुरुषों के समान ही वह पहल कर सकती थी। वह किसी की पत्नी ही नहीं, सहोदरा और माता भी थी। पुत्री के रूप में पुत्र के समान ही प्रिय, युवती के रूप में युवक के समान आज़ाद, पत्नी के रूप में पति से अधिक अधिकार रखने वाली गृहस्वामिनी और जननी के रूप में पिता से भी अधिक पूजनीय थी। लेकिन महाभारत के बाद स्थितियों का हृास हुआ, धार्मिक अधिकार कम कर दिए गए, शिक्षा सुविधाएं न्यून होती गयी और स्वतंत्रता सीमित हो गई, यहां तक कि मनु आदि स्मृतिकारों ने भी प्रतिपादित कर दिया कि पुरुष को चाहिए कि स्त्री को अपने अधिकार में रखे। नारी की शोचनीय दशा का अंदाज़ा इस बात से बखूबी लगाया जा सकता है कि तुलसीदास जैसे प्रकांड पंडित तथा पत्नी से अत्यधिक प्रेम करने वाले कवि ने नारी की तुलना पशुओं से करते हुए उसे प्रताड़ना का अधिकारी बता दिया।

“ढोर, गंवार, शूद्र, पशु, नारी

ये सब ताड़न के अधिकारी।”

मुगलों के राज में नारी दशा अत्यंत शोचनीय रही, उसे पर्दे में रहना पड़ता था व राजाओं के हरम की शोभा बनाई जाती थी, उसे पाने के लिए षड्यंत्र रचे जाते थे, यहां तक कि राजा आपस में युद्ध भी करते थे। उत्तर मध्यकाल में नारी को मात्र भोग विलास का साधन बना दिया गया, पूरा का पूरा रीतिकाल साहित्य इस का उदाहरण है। साहित्यकारों एवं कवियों द्वारा केवल मात्र अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए नारी का नख-शिख वर्णन किया जाने लगा। इसे दरबारों में राजा रस ले-ले कर सुनते थे, इसी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि समाज में नारी की दशा कैसी थी। कुल मिला कर इस काल में नारी का दर्जा निकृष्ट था। उसे केवल भोग-विलास के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। आज भी फिजी में कुत्ते मन्दिर जा सकते हैं मगर महिलाएं मन्दिर नहीं जा सकती हैं। अपने देश में सर्वेक्षण के अनुसार प्रत्येक 30 मिनट के बाद बलात्कार, 40-45 मिनट में अपहरण एवं प्रतिदिन 15-20 तक हत्यायें हो रही हैं।

भारत में स्त्री स्वतंत्रता की लड़ाई की पहल की पुरुषों ने, राजाराम मोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, गांधी जी, नेहरू जीे एवं महर्षि कर्वे जैसी हस्तियों ने नारियों की लड़ाई पुरुषों के क्षेत्र में लड़ी और नारियों को आगे बढ़ाया। स्कूल, कॉलेज खोले, सती प्रथा ख़त्म की, छोटी उम्र की शादियों को ग़ैर कानूनी करार दिया और संविधान के द्वारा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हल्कों में बराबरी का स्थान दिलाया, ये अधिकार डेढ़ सौ वर्षों की सामाजिक क्रांति के परिणामस्वरूप थे, ये अधिकार भारतीय नारी ने अपनी योग्यता और अथक कार्यकुशलता की स्वीकृति के आधार पर ही प्राप्त किए। किसी भी चीज़ की अति उसके अंत का सूचक होती है। नारी की शोचनीय दशा भी अपने चरम पर थी। अतः इस का विरोध लाज़िमी था और होने भी लगा था इसके पीछे सोच थी कि यदि नारी की दशा सुधारी न गयी तो निश्चित रूप से परिणाम बहुत बुरे होते। आधुनिक काल के आरम्भ के साथ-साथ नारी मुक्त‍ि अभियान भी प्रारम्भ हो गए। कवियों एवं साहित्यकारों ने भी इस में अपना विशेष योगदान दिया और आदर तथा श्रद्धा का पात्र बनायाः-

“नारी तुम केवल श्रद्धा हो

विश्वास रजत नग पल-तल में

पीयूष स्त्रोत सी बहा करो

जीवन के सुन्दर समतल में।”

महाकवि  निराला ने तो समाज को फटकार भी लगाईः-

“योनि नहीं है रे नारी

वह भी मानवी प्रतिष्ठि‍त

उसे पूर्ण स्वाधीन करो।”

नारी पुरुष का पूरक रूप है। पूरक रूप समानता को स्वीकार करता है, अधीनता को नहीं। ईश्वर ने नारी को पुरुष के समान शारीरिक रूप से बलशाली नहीं बनाया तथापि मानसिक रूप से नारी पुरुष की तुलना में कहीं अधिकतम सुदृढ़ एवं बलशालिनी है। नारी की सहनशक्त‍ि एवं धैर्य उस के गहने हैं।

यह नितांत सही है कि स्वतन्त्रता के बाद अब भारतीय नारी की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है और संवैधानिक दृष्ट‍ि से स्त्री और पुरुष की समानता पूर्ण रूप से स्वीकार कर ली गयी है, तलाक़ एवं उत्तराधिकार संबंधी कानून पास कर के स्त्रियों के प्रति सदियों से होने वाले आर्थिक और सामाजिक अन्यायों को सिद्धांततः समाप्त कर दिया गया है, अब पुरुषों को बदलना होगा। जब वह चाहता है कि स्त्री पुरुष की दुनिया का हिस्सा बने तो उस को भी अपनी सोच बदलनी होगी। अभी तक तो स्त्री ही बदलती आई है, लेकिन स्त्री को इस बदलते परिवेश में अपने चारित्रिक गुणों को सम्भाल के रखना होगा। सहिष्णु, ममतामयी, वरदानी, प्रेमल, दया, करुणा से भरी अपने आप में सम्पूर्ण नारी, जिस में आत्मविश्वास हो अपनी क्षमताओं को विकसित करने की क्षमता और पुरुष के साथ मिलकर चलने की स्पर्द्धा पैदा करनी होगी तभी वह अपने शील की रक्षा करने में सफल हो सकेगी।

 


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