रमेश सोबती

ढाई अक्षरों का शब्द प्रेम जितना सीमित है इस का अर्थ उतना ही विराट है। प्रेम की व्याख्या है-“जो प्रसन्नता प्रदान करे।” प्रेम में संतुष्‍टि का तत्व निहित है, यही संतुष्‍टि प्रेम अथवा प्रणय की प्रेरक शक्‍ति है। इस चरम तृप्‍ति-प्रद प्रेम भावना का मूल स्थान हमारी आत्मा में है, क्योंकि आत्मिक प्रेरणा के अभाव में कोई भी इन्द्रिय-व्यापार आनंदप्रद नहीं हो सकता। देवर्षि नारद ने प्रेम के स्वरूप को गूंगे मनुष्य के स्वाद की भांति अनिवर्चनीय कहा है। प्रेम निर्गुण तथा कामनाहीन होता है तथा यह निरंतर बढ़ता रहता है। वह अत्यंत सूक्ष्म होता है और इसे अनुभव से ही जाना जा सकता है। प्रेम एक व्यापक तथा शक्‍तिशाली तत्व है अत: इसका मूल्यांकन अनेक दृष्‍टियों से उपलब्ध होता है। जिस प्रकार शरीर-रक्षक भोजन, वस्‍त्र और आवास आदि को जीवन में महत्त्व दिया जाता है उसी प्रकार मन, विचार से सम्बद्ध धन-वैभव, शोभा-सिंगार और स्‍त्री को प्रेम के अंतर्गत स्थान दिया गया है। दरअसल प्रेम भी मन संतुष्‍टि के लिए बहुत आवश्यक है जिस से मन को पूर्णत: हटा लेना सम्भव नहीं है। पुरुष-नारी का परस्पर एक-दूसरे पर अनासक्‍त होना दुष्कर है उनके स्वाभाविक आकर्षण को प्रेम की संज्ञा दी गई है।

अंग्रेज़ी भाषा में प्रेम के लिए “Love” शब्द का प्रयोग हुआ है। Love का अर्थ Affection, Devotion, Friendliness तथा passionate affection for a person of opposite sex बताया गया है। निष्कर्ष रूप में ग्रहण करें तो प्रेम विभिन्न लिंगी युगल के मन में काम वासना के कारण जागृत वह संवेग है, जिस में रूप-लावण्य की मोहक मदिरा का नशा तथा एक-दूसरे को दैहिक व आत्मिक स्तर पर पाने, जीने व भोगने की तीव्र लालसा विद्यमान रहती है। श्रद्धा, प्रीतियुक्‍त प्रार्थना, मोक्ष तथा विश्‍वास आदि मन की स्वाभाविक वृत्तियां हैं, जो प्राणियों के अनादि संस्कार हैं। मन, मनुष्य की तथा नारी की अदभुत शक्‍ति है इस के सहयोग बिना इन्द्रियां कोई भी कार्य नहीं कर सकती। शरीर एक भौतिक तथा स्थूल शक्ति है किंतु मन सूक्ष्म तथा महान, इसलिए इस की अदभुत क्षमताओं के विश्‍लेषण और इस के स्वरूप संधान हेतु संस्कृत वाड्मय में तल स्पर्शी अनुसंधान मिलता है। वाल्मीकि रामायण में पुष्पवाटिका में सुकुमारी सीता के अनिंद्य व दिव्य सौदर्न्‍य का दर्शन कर राम के सहज पुनीत मन में प्रेम भाव की सुसुप्‍त कलिका मुस्करा उठती है। महाकवि तुलसीदास ने तो अपने एक दोहे में यहां तक कह दिया-

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा,

सहज पुनीत मोर मन छोआ।

मानव जीवन प्रेम से पूर्ण है। प्रेम रहित जीवन पल्लवहीन ठूंठ या सूखी नदी के समान है जिस में न गति है न स्पन्दन, प्रेम के बिना जीवन निरर्थक है क्योंकि प्रेम से ही जीवन में गति और जीवन्तता आती है और जैविक यत्‍न प्रारम्भ होते हैं। प्रेम के बीज सूक्ष्म-शरीर के अंतर्गत संस्कार रूप में विद्यमान हैं जिन से अहर्निश असंख्य कामनाओं की उत्पत्ति होती रहती है। प्रेम भाव का यह सूक्ष्म रूप एक बार हृदय-कोष में पदार्पण करने के बाद फिर समाप्‍त नहीं होता। यह प्रेम के स्थायित्व का प्रमाण है। वियोग की बेला में प्रेम की सुकोमल वल्लरी उत्तरोत्तर श्री सम्पन्न होती जाती है वियोगावस्था में प्रेम भाव व्यय न हो पाने के कारण संचित होकर राशिभूत हो जाता है उस की संजीवनी शक्‍ति बढ़ जाती है। प्रेमभाव को प्रारम्भ होने के क्षण में तो रूपाकर्षण की अपेक्षा तो होती है लेकिन सुस्थापित हो जाने के बाद प्रेम को शारीरिक सौन्दर्य की आवश्यकता नहीं रहती। यही प्रेम पुरुष और नारी में स्थूल भाव को प्राप्‍त होकर शरीर में रज-वीर्य रूप में उत्पन्न होता है जिससे सृष्‍टि चक्र चलता है। यजुर्वेदानुसार हम अपने संकल्प-विकल्पों द्वारा जो क्रम करते हैं उन की उत्पत्ति स्थान यह प्रेम भावना ही तो है ऐसे में प्रेम ही प्रतिग्रहत बन जाता है, जो सृष्‍टि संचालन के लिए अनिवार्य है।

पुरुष और नारी का संग सनातन है। अत: नारी (पत्‍नी के रूप में) नर (पति के रूप में) की शाश्‍वत सहचारी मानी गई है। ऋगवेद इस तथ्य की पूर्ति करता है। प्रकृति और पुरुष का साहचर्य जैसे संसार की सृष्‍टि करता है, वैसे ही पुरुष और नारी विश्‍व को गतिशील रखने हेतु अभिन्न रूप से सदा साथ रहते हैं। यही प्रेम के माध्यम से प्रकृति की पूर्णता है। इस लिए ग्रंथों में सौभाग्य के लिए पाणिग्रहण की बात कही गई है तथा पत्‍नी को “पाणिगृहीणता” कहा गया है। पति को परिहस्त अर्थात् सब प्रकार से हाथ (आश्रय) देने वाला कहा गया है। पति-पत्‍नी प्रेम को जीवन्त रखने के लिए जीवन के गंभीर दायित्वों और चुनौतियों को निभाने हेतु हमेशा तत्पर रहते हैं। इनका परस्पर इतना घनिष्‍ठ सम्बंध प्रेम के द्वारा ही स्थाई बना रहता है और पत्‍नी जीवन भर मर्यादा में रहती है। प्रेम विषयक उपर्युक्‍त अवधारणाओं की पुष्‍टि पाश्‍चात्य विचारकों द्वारा कथित तथ्यों से भी होती है। ‘द बाईबल’ में अनेक स्थानों पर प्रेम को परिभाषित किया गया है। जो प्रेम को नहीं जानता वह ईश्‍वर को नहीं जानता क्योंकि प्रेम परमेश्‍वर है। “who ever does not love, does not know God, because God is love” मानवता के कल्याण के लिए तीन तत्व आवश्यक हैं प्रेम, आशा तथा विश्‍वास। प्रेम इस में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। शेक्सपियर के विचार में प्रेम का दर्शन भौतिक चक्षुओं से सम्भव नहीं उसे केवल हृदय से ही अनुभव कर पाना सम्भव है। महाकवि भवभूति के अनुसार दो दिलों को परस्पर अनुरक्‍त करने वाला प्रेम अज्ञात कारणों से होता है। कालिदास ने भावाकूल मनोदशा को ही प्रेम दशा माना है। संस्कृत के विद्वानों ने प्रेम की जिस व्यापकता दुरूहता अनुभव गम्यता और तृप्‍त‍िकारिणी शक्‍त‍ि का प्रतिपादन किया है उसे परवर्ती भारतीय विद्वानों द्वारा तथैव स्वीकार कर लिया। कबीर ने प्रेम की दुरूहता को प्रतिपादित किया है कबीर के बंद “आदि ग्रंथ साहिब” में सब से अधिक हैं। इन बंदों में प्रेम की पराकाष्‍ठा सम्पूर्ण रूप में है। सूरदास ने प्रेम को मृत्यु भय से रहित माना है। जैसे पतंगा प्रेमातिरेक के कारण जल कर भस्म हो जाता है। जायसी ने प्रेम को अनुभव गम्य ही माना है। रसखान प्रेम का ईश्‍वर रूप स्वीकार करते हैं बिहारी प्रेम की गंभीरता सागर से अधिक मानते हैं। प्रेम के अथाह सागर में पर्वतों से भी अधिक समुन्नत रसिक मन डूब जाते हैं। कविवर धनानन्द ने प्रेम के पथ को अत्यंत सरल माना हैं, जिस पर सरल हृदय वाले प्रणयीजन अभय होकर आगे बढ़ते हैं। मीरा तो प्रेम की ही दीवानी है। “मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई।” गीता, कुरान, प्रेम का अथाह सागर है।” जो मेरे जीवों से प्रेम करता है मैं उसका हूं- मैं उसे सब से अधिक प्रेम करता हूं।”

आधुनिक काल के कवियों ने भी प्रेम के प्रति अपनी-अपनी मनोभावनाओं को उदभासित किया है। गुप्‍त जी के अनुसार प्रेम की व्याप्‍ति युगल युवा हृदयों में दोनों ओर समान रूप से प्राप्‍त होता है। प्रसाद ने प्रेम को काम की संज्ञा दी है और उसी से ही सृष्‍ट‍ि का कारण मानते हैं। महादेवी वर्मा के विचार में प्रेम का संसार सर्वथा अभिनव है, उस की चरम संतुष्‍टि के समक्ष अन्य लौकिक आकर्षण असार हैं। भारतीय धर्मग्रंथों में प्रेम को ईश्‍वर के रूप में मान्यता प्राप्‍त है। संत कवियों ने स्वयं को नारी और परमात्मा को पुरुष रूप में माना है और जीव परमात्मा के रूप में प्रेम सम्बन्धों की स्वीकृति दी है। सूफ़ी कवियों ने भी प्रेम को जीवन में आवश्यक मानव मूल्य बताया है उन्होंने नैतिक स्‍तर पर प्रेम का तिरस्कार नहीं किया उन्होंने लौकिक प्रणय संबंधों से परलौकिक प्रणय-संबंधों की प्राप्‍ति का सूत्र दिया और नारी को ही परमात्मा स्वरूप में स्वीकार किया। यही कारण है कि सूफी काव्य में नारी निंदा कम हुई है। प्रेम ईश्‍वर का स्वरूप है। प्रेम स्वयं ईश्‍वर है तथा मनुष्य को ईश्‍वर प्रदत्त अमूल्य निधि है। जिस प्रकार ईश्‍वर अदृश्य एवं सर्वव्यापी है उसी प्रकार प्रेम का भाव भी अप्रकट और सर्वव्यापी है। जैसे ईश्‍वर अपने संस्पर्श से समस्त चराचर जगत को चरम सौन्दर्य प्रदान करता है, वैसे ही प्रेम भाव भी मन में अप्रकट रूप से रहकर उसके हार्दिक सौन्दर्य की वृद्धि करता है। मनुष्य या नारी हर समय क्रोध, उत्साह, शौक़ आदि की अवस्था में नहीं रह सकता, पर वह प्रेम भाव की अवस्था में अधिक समय तक रह सकता है। प्रेमी जन आजीवन प्रेम भाव में व्यस्त रहते हैं। हीर-रांझा, सस्सी-पुन्नू, मिर्ज़ा-साहिबा आदि ये सभी अपनी चित्तवृतियों में जीवन भर अन्तर्मुखी रहे और बाहृां जगत के प्रलोभनों से मुक्‍त हो गए।

निष्कर्षत: पूरी सृष्‍ट‍ि में संचरण करने वाले मनुष्य, सभी प्राणी, खग, मृग, कीट-पतंग सब में प्रेम भाव व्याप्‍त है। जड़ जगत में भी प्रेम की व्यापकता सहज दृष्‍टव्‍य है। अपनी व्यापकता के गुण के कारण यह प्रेम भाव कविताओं में सदैव संयुक्‍त रहा है।

  

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