-दीप ज़ीरवी

अबाध निःशब्द निरंतर गतिमान समय सरिता की धारा के संग बहते-बहते कई संवत्सर निकले, कई युग बीते, कई जन, जन-नायक बनकर उभरे और विलीन हो गए।

समय सरिता का एक और मोड़ आया 2015 का जाना एवं 2016 का आना। 2015 को जाना था वह गया एवं 2016 आना था, 2016 के शैशव काल में काल के कराल में समा चुके अतीत का विवेचन करना उचित है-

रस्म-ए-दुनियां भी है

मौक़ा भी है

दस्तूर भी है

भारतीय संस्कृति में चार युगों की धारणा स्थापित है। सतयुग, त्रेता युग, द्वापर युग, कल युग। इस मत अनुसार वर्तमान युग कलयुग है।

कल+युग

कलपुर्ज़ों का युग, कल कारखानों का युग। कलयुग वह कलयुग जिस कलयुग में हमने उन्नति के सिंहद्वार खोले हैं, कल कारखानों का संजाल निर्मित किया है अत्याधुनिक टेकनोलॉजी को विकसित किया है।

आज बरसों का कार्य महीनों में, महीनों वाला दिनों में, दिनों वाला घंटों में, घंटों वाला मिनटों में एवं मिनटों वाला कार्य सेकन्डों में हो पाना संभव है।

आज उत्पादन में आशातीव्र वृद्धि हुई है अधिकांश रोगों या महामारियों पर विजयी हो चुके हैं। सागर तल हो या अम्बर का सीना सभी जगह मानव पद चिन्हित हो चुके हैं।

मानव रहित मशीन मानव युक्‍त कल कार्यस्थल कारखाने भवन इत्यादि निर्मित हो चुके हैं ….

…. ये सब तो उदाहरण मात्र हैं यह सब और इससे भी परे कई कुछ और भी।

इस उन्नति गाथा का सिंहावलोकन करने से लगता है कि हमने तरक्की की पराकाष्‍ठा को पार ही कर लिया हो….

…. लेकिन…. लेकिन तनिक सोचें तो इस उन्नति की नींव में क्या-क्या दब गया घुट कर रह गया, मर गया अथवा मरणासन्न है।

निःसंदेह भौतिक स्तर पर नव वर्ष के आते-आते हम उन्नति की सीढ़ी के उस स्थान तक आ पहुंचे हैं जहां सिनेमा का पुरानी श्‍वेत श्याम कलाकृतियों में सजीले रंग भरे जा सकते हैं किन्तु अपने चरित्र के रंगों सदाचार, सहयोग, सहनशीलता को फीका पड़ने से बचा नहीं पाए हैं। हम अनुसरण करना भूलते जा रहे हैं और अपना पूरा ध्यान अनुकरण अपितु अंधानुकरण पर केंद्रित किये जा रहे हैं। हम जानते तो हैं कि भारतीय संस्कृति सत्य सनातन एवं गुण खान है किन्तु पश्‍चि‍म की आंधी से उड़ कर आई धूल से धुंधलाई सोच के चलते मानते नहीं हैं।

हमने रोगोपचार या निदान के क्षेत्र में क्रांति देखी है। रंगीन एकस-रे, सी.टी. स्कैन इत्यादि कितनी सुविधाएं निदानहेतु विकसित की हैं। विज्ञान देह के रोग के निदानोपचार हेतु प्रतिपल अग्रसर है किन्तु मानव-मन के रोग उत्तरोतर बढ़ते जा रहे हैं जिनका निदानोपचार शेष है। हिंसा, बलात्कार, लिंगभेद, शोषण, उत्पीड़न, हत्या, अपहरण, लोभ, भेद-भाव …. कितने व्रण हैं समाज की देह पर नासूर बनकर रिसते बदबू फैलाते जिनका निदानोपचार होना शेष है।

आज अनुकरण की होड़ में अनुसरण लुप्‍त प्रायः है। “जनरेशन गैप” कालबाधा ओढ़ कर दायित्व मुक्‍त होने में भलाई समझने की चेष्‍टा व्यर्थ है।

तनिक सोचा जाये कि कहां से चले हैं …. कहां जा के थमेंगे चलते-चलते और अभी ये कहां आ गए हम

                                                  इस दौर-ए-तरक्की के

                                                                   अंदाज़ निराले हैं

                                                                                    ज़िहनों में अंधेरे हैं,

                                                                                                सड़कों पर उजाले हैं।

 

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