-गोपाल शर्मा फिरोज़पुरी
सृष्टि की जन्म दाती नारी जगत् की जननी, संसार की खेवनहार तू क्यों आंसुओं की नदी में गोते खा रही है? नर को अपनी कोख में नौ मास रखकर उसे धरती पर अवतरित करने वाली नारी, अब तू क्यूं है मारी-मारी? क्यूं है, इतनी लाचार, क्यूं बन बैठी है बेचारी? क्यूं अत्याचार के खूनी पंजों में छटपटा रही है जिस पुरुष को तूने अपनी छातियों का गर्म दूध पिला कर पैरों पर खड़ा किया तू उससे भयभीत क्यूं है? केवल इसलिए कि तू जन्म जन्मान्तरों से दुलर्भ मानसिकता का शिकार रही है जिस व्यक्ति को तू पति-परमेश्वर मान बैठी है, उसी ने तेरी खिल्ली उड़ाई है। तेरे जज़बातों को रौंदा है जिस पुरुष को देवता और पुरुषोत्तम मानकर उसके चरणों की धूल माथे पर लगाई है उसी ने सदियों तक तेरा तिरस्कार किया है। नर तो भूल बैठा है कि नारी का अस्तित्त्व है तो नर की अहमियत है। उसने तो बेशर्मी की सब हदें पार करके नारी की इज़्ज़त और आबरू को पल-पल क्षण-क्षण रौंदा है। पुरुष प्रधान समाज ने दुःखी, त्रासद और असहाय नारी की पीड़ा पर केवल ठहाके ही लगाये हैं। पुरुष देवता हो या राक्षस उसके लिये सभी एक थाली के चट्टे-बट्टे हैं।
भारत के इतिहास में कोई युग ऐसा नहीं आया जब नारी खुलकर स्वतंत्रता से जी सकी हो, अपनी पसन्द का पहन सकी हो, खेल सकी हो, मनोरंजन कर सकी हो। सभी प्रकार की बन्दिशों और अनुशासन की तलवार उसके सिर पर ही लटकती रही है न परमेश्वर पिघला – न प्रकृति बदली, न समाज ने उसका सन्ताप देखा – न पीड़ा सुनी। केवल रुदन और विरलाप हवाओं में फैलकर घाटियों को कूच कर गया नारी के ज़ुल्म के आगे केवल नतमस्तक होने के कारण एवं भाग्य और खोखली परम्पराओं को निभाने के कारण। ज़रा आप सोचिए यह काहे का सतयुग था जहां देवता और ऋषि उससे एक जैसा व्यवहार करते हैं। देवता इन्द्र उस अबला अहिल्या से मुंह काला करता है और उसका ऋषि पति इन्द्र को प्रताड़ित करने की बजाय अहिल्या को पत्थर की शिला हो जाने का अभिशाप दे डालता है। सतयुग में इस तरह का अन्याय? इस युग को सतयुग कहना हास्यप्रद नहीं लगता? अहिल्या यदि इस कृत्य का डट कर विरोध करती तो नारी जाति का स्वाभिमान और गौरव बचाती। वह केवल रोई-चिल्लाई और आंसू बहाकर पत्थर-सी जड़ हो गई। इस तरह की दुःखद घटनाओं का नारी मन को चिन्तन और मन्थन करना होगा। परत दर परत इतिहास के पन्ने बोल रहे हैं कि स्वयं अवतारों ने भी उसकी झोली में फूल नहीं डाले बल्कि कांटों के हार पहनाए हैं। तर्कशील व्यक्ति को देवताओं की इस प्रकार की घटनाएं झकझोर कर रख देंगी। करे कोई और भरे कोई यह सतयुग हुआ कि नटयुग। देवताओं के दरबारों में सुरा सुन्दरी का बोल-बाला क्या विलासिता की ओर इंगित नहीं करता। क्या नारी की मार्मिक-दुःखद पीड़ा की ओर इशारा नहीं करता।
उसके आंसुओं से घड़ों पानी भरा होगा। दिल के छाले रिस-रिस कर फूटे होंगे, मगर किसी की आंखों की दूरबीन ने उन्हें नहीं देखा। किसी सूक्ष्मदर्शी की परिधि के अन्दर वो नहीं आये। क़दम-क़दम पर बिलखती नारी जब त्रेतायुग में पहुंची तो वहां उसका सत्कार किसी ने नहीं किया। उसकी जय-जयकार कहीं नहीं हुई। वहां भी पुरुष ही पुरुषोत्तम रहा। देवता और राक्षस सभी ने उसके साथ दुर्व्यवहार किया। रावण मैया सीता का अपहरण करके ले गया और उसे बन्दी बनाकर कारागार में रखा। राम भगवान् के अवतार थे तो सीता भी तो भगवती थी। लंका में रह कर वह अपने इरादे से रावण की शक्ति के आगे तिल भर नहीं झुकी। राम और रावण का युद्ध हुआ। लंका विध्वंस हुई, रावण मारा गया। सीता मुक्त होकर राम को पाकर धन्य हो गई परन्तु राम ने उसकी अग्नि परीक्षा ले डाली। जब वह इस परीक्षा में भी शत-प्रतिशत अंक लेकर उत्तीर्ण हो गई तो फिर उसे किसी ऐरे-गैरे धोबी के लांछन लगाने पर घर से निकालना क्या न्याय संगत लगता है वह भी उस समय जब वह गर्भवती थी। यह इसलिए सम्भव हुआ कि मां भगवती सीता ने तिल भर भी विरोध नहीं किया। न्याय का दरवाज़ा नहीं खटखटाया और दुःखों की गठरी सिर पर उठाकर महार्षि वाल्मीकि की कुटिया में दुःख भरा जीवन बिताने को बाध्य हो गई। भले ही एक सामान्य स्त्री को राजा की आज्ञा का उल्लंघन करने पर दण्ड भुगतने का भय हो मगर सीता भी एक अवतारी नारी थी – राजा की रानी थी – उसका आंखें मूंदकर ज़ुल्म को सह लेना आज नारी जाति के मन में कई प्रकार के प्रश्न चिन्ह खड़े करता होगा। यदि राम राज्य में भी नारी पीड़ित है तो सामाजिक दृष्टि से यह सुखद या अति सुखद काल नहीं कहा जा सकता क्योंकि नारी है तो वह नर है, नर है तो नारायण है – सोचना तो नारी को है कि कौन से समय पर कौन-सा बर्ताव करना है – या अडोल रहकर विचरना है या इसी क्रम में द्वापर युग तक यूं ही रेंगना है। किसी अनहोनी घटना के हो जाने पर केवल भाग्य को कोसना है तो वह उसकी स्वेच्छा है वरना द्वापर युग में जो दुःखद घटनायें नारी के साथ घटी हैं उसके लिए कौरव और पांडव दोनों दोषी हैं।
दुर्योधन ने द्रौपदी को नग्न करने का दुःसाहस किया – भरे दरबार में उसको निर्वस्त्र करने का प्रयत्न करने की अश्लील हरकत की जिससे पुरुष जाति पर एक काला धब्बा लगा दिया जो सदैव नारी मन को ठेस पहुंचाता रहेगा। ठीक इसके ही समरूप जो पाण्डवों ने द्रौपदी के साथ किया उससे पुरुष जाति का सर गर्व से ऊंचा नहीं उठता अपितु शर्म से झुक जाता है। एक औरत को वस्तु समझ कर जुए में हारना क्या पाण्डवों को शर्मसार नहीं करता। इससे भी बढ़कर भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य जैसे प्रतिष्ठित और सम्मानित व्यक्तियों का द्रौपदी नग्न कांड में निश्चिल और ख़ामोश रहकर नारी अस्मत की मिट्टी पलीत होते हुए मूक दर्शक बनकर तमाशा देखना क्या उनके शौर्य को चार चांद लगाता है। यदि नारी द्रौपदी अपना उग्र रूप न दिखाती। अपने तेवर न बदलती तो कोई भी अप्रत्याशित घटना हो सकती थी परन्तु नारी ने यहां नारी के लिए गुहार की है। श्री कृष्ण भगवान् को दुहाई दी है। वास्तविकता से परिचित करवाया है।
श्री कृष्ण ने द्रौपदी की लाज बचाकर पुरुष जाति को कलंकित होने से बचा लिया है। द्रौपदी की पुकार में दृढ़ निश्चय था, विश्वास था जिसके चलते दुर्योधन के मनसूबे विफल हो गये। द्रौपदी के बदले हुए तेवरों में ललकार थी, चुनौती थी, एक भयंकर गर्जना थी जो सिंहनी की भांति गर्ज उठी, “वह तब तक अपने बालों को गांठ नहीं लगायेगी जब तक दुर्योधन के खून से उन्हें रंग नहीं लेगी।” शायद यही संकल्प सत्य भी हुआ था। जब-जब नारी ने उग्र रूप धारण किया है। दानवों, राक्षसों और अत्याचारियों का नाश हुआ है जिस कारण नारी-दुर्गा, चंडी और वैष्णवी मां कहलाई। आज नारी आधुनिक काल में प्रवेश कर चुकी है। राजतन्त्र की निरंकुशता का ख़ातमा हो गया है। वह लोकतान्त्रिक संवैधानिक गणराज्य की सम्मानित नागरिक है। कानून की दृष्टि से वह समानाधिकार रखती है। नये युग, नये परिवेश में उसे अपनी सोच और अपनी मानसिकता को बदलना होगा। कुछ रूढ़ियों, कुछ अन्धविश्वासों और खोखली मान्यताओं को ठोकर मारनी होगी। पुरुष-परमेश्वर और नारी-दासी जैसी जड़ता को नकारना होगा। शोषण-दोहन, अन्याय के प्रति आवाज़ बुलन्द करनी होगी। यह कार्य पुरुष प्रतिकार स्वरूप नहीं अपितु सकारात्मक, रचनात्मक और सृजनात्मक लक्ष्य को ध्यान में रखकर करना होगा। शिक्षा-विज्ञान, खेलों, गृहकार्यों और सेहत, रोग सब प्रकार से पारंगत होकर आत्म निर्भर होना होगा। छुआ-छूत वर्ग तथा वर्ण विभाजन का डट कर विरोध करना होगा। आवश्यकतानुसार शारीरिक रक्षा के लिए उपयोगी जूडो-कराटे और अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण लेना होगा। पर्दा-घूंघट और निर्धारित बन्दिशों को त्यागना होगा। खुले में जीने की कला के प्रति, व्यवसाय के लिए भूख और टेलेंट हंट के प्रति जागरूक होना होगा। ऐसा करते हुए नारी को अश्लीलता की हदें पार नहीं करनी है बल्कि सभ्य समाज में जिओ और जीने दो के सिद्धान्त का परचम लहराना होगा। दहेज-प्रथा को सिरे से नकारना होगा। छोटे परिवार को अहमियत देनी होगी मगर यह ध्यान रहे कि कन्या भ्रूण हत्या के प्रस्ताव को ठुकराना होगा। बलात्कारी को किसी क़ीमत पर छोड़ना नहीं होगा चाहे वो कितने ही बड़े रुतबे का मालिक क्यूं न हो, न तो जैसिका लाल की हत्या करके कोई छूट जाए, न ही फ्रांसिसी युवती से बलात्कार करने वाला भाग पाये, न किसी ससुर द्वारा बहू की इज़्ज़त लूटी जाये, न कोई किसी कवयित्री या अधीन कर्मचारी महिला को अपनी हवस का शिकार बनाये। नारी अपने पति की बीमारी में उसका साथ निभाती है तो वह पति को भी समझाये कि विकट परिस्थिति में वह भी घर का चौका चूल्हा संभाले।”
यही नहीं यदि पत्नी कामकाजी है तो पति को घर के हर कार्य की ट्रेनिंग दें। किसी दबदबे के साथ नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक और तर्क के आधार पर। एक-एक और दो ग्यारह होते हैं परन्तु यह तभी सम्भव हो सकता है यदि नारी अपने को तुच्छ न समझे और अपनी योग्यता का लोहा मनवाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर डट जाये।