महिला विमर्श

भेदभाव के दंश झेलती प्रगति पथ पर अग्रसर भारतीय नारी

  भारतीय संस्कृति में आदिकाल से ही नारी को शक्‍ति के प्रतीक के रूप में प्रतिबिम्बित किया जाता रहा है। विश्‍व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में नारी को देवी का स्वरूप कहा गया है। वैदिक व पौराणिक ग्रन्थों में नारी को शक्‍ति स्वरूपा कहकर प्रतिष्‍ठ‍ित किया गया है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में नारी शक्‍ति की स्तुति की जाती रही ...

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ख़ाबों की तसवीर

जो रात को सोते में देखते हो तुम, उन सपनों के कोई मायने ही नहीं होते। सपने तो दरअसल वो होते हैं जो सोने नहीं देते तुमको। सभी के सपने सच नहीं होते पर फिर भी सभी सपने सजाते तो ज़रूर हैं। अपनी हसरतों के, अपनी आकांक्षाओं के, अपनी मुरादों के सपने। यह सपने ही तो हैं जो जीने की ...

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नहीं अब और नहीं

चलना है इसलिए चल दिए हैं, उठना है इसलिए उठ पड़े हैं। यूं बेमक़सद-सा चलते जाना क्‍यूं ज़िन्दगी का दस्तूर हुआ। आशा से भरी निगाहें लिए मन में ढेरों सपने सजाए कब से चल रहे हैं पल भर पलट कर देखें, सोचें क्या बदला, क्या पाया। उम्मीद के उस छोर से हम कितनी दूर। आशा थी हमें कि औरत को ...

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उड़ान के लिए फड़फड़ाते पंख

   अरमां मचले तो थे तड़प कर रह गए।    होंठ हिले तो थे पर  शब्द दम तोड़ गए। वो तड़पती हुई मुसकराती गई पर उफ़ न की –    वह औरत थी। इज़्ज़त का सवाल है।  दोनों कुलों की लाज है वो। बदनामी होगी…. श……..श……… ये फ़र्ज़ हैं तेरे, ये कर्त्तव्य हैं तेरे। औरत मां है, बेटी है, बीवी है। ...

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बदलते मौसम

परिवर्तन संसार की रीत है। इतिहास साक्षी है जब-जब भी परिवर्तन हुए हैं इनके आगे रुकावटें भी आती रही हैं, तोहमतें भी लगती रही हैं पर परिवर्तन तो हो कर ही रहे हैं। कोई खोज अंतिम नहीं, कोई सच अंतिम नहीं। प्रयत्न भी होते रहेंगे, परिवर्तन भी होते रहेंगे। थके-हारे व्यक्ति ही पुराने विचारों के साथ जुड़े रहते हैं। कमज़ोर ...

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टूटती ज़ंजीरें

जो लिखा है वही होना है तो फिर किस बात का रोना है। क़िस्मत का रोना कमज़ोर आदमी की अलामतें हैं। यदि उस लिखने वाले के ज़िम्मेे ही सब कुछ छोड़ दिया जाए तो हमारे करने को तो कुछ बचेगा ही नहीं। तदबीर से तक़दीर बनती है हमेशा, इक बार आगे तो बढ़ के देख। आज़मा ले इक बार अपने ...

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प्रथाओं की ज़ंजीर लोक लाज की ओट में चल रहा रिश्तों का कारोबार

उसके आश्‍चर्य की उस वक्‍़त कोई सीमा नहीं रहती जब संबंधियों के लालची न होने पर भी उसका बजट रस्मों-रिवाज़ों के हाथों ही लम्बा खिंचता चला जाता है।

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दो पाटन के बीच में

-दीप ज़ीरवी सदियों से नारी के पांव में परतन्त्रता की बेड़ियां खनकती रही हैं। चार दीवारी में सीमित मातृ शक्‍ति का कार्य मात्र बच्चों को जन्म देने का माना जाता रहा है। भारत आज आज़ाद है, 68 बरस हो गए आज़ादी की दुल्हन को ब्याह कर आए हुए। भारत की आज़ादी सम्पूर्ण आज़ादी नहीं, 50 प्रतिशत भारत आज भी परतंत्र ...

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अश्‍लीलता के विरुद्ध जीतना है एक और महाभारत

–मुनीष भाटिया आज यदि समाज पर दृष्टि डाली जाए तो यहां ऐसी वृत्तियां पनप रही हैं जिसमें नैतिक शिक्षा, सदाचार की अपेक्षा अनैतिकता व भ्रष्ट आचरण को महत्त्व दिया जा रहा है। इन सबका खामियाजा दुर्भाग्य से नारी समाज को भुगतना पड़ रहा है। समाज की भ्रष्ट प्रवृत्ति के कारण नारी को वस्तु बनाकर उपयोग किया जा रहा है। सौंदर्य ...

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