पवन चौहान

मातृत्व

यह बात सुनकर किरण भी ग़ुस्सा होते हुए बोली, 'आप यह क्यों नहीं कहते कि आप मुझे यहां पत्नी बनाकर नहीं नौकरानी बनाकर लाए हैं?'

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घरेलू हिंसा और महिलाओं की स्थिति

नारी के बिना किसी समाज की परिकल्पना करना दुःस्वप्न मात्र है। उसे अपमानित, उपेक्षित व प्रताड़ित करना अपने पैरों पर स्वयं ही कुल्हाड़ी मारने जैसा यत्न है।

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अंतिम सांझ का दर्द

वह हर दिन निकलने वाले सूर्य के साथ दरवाज़े पर टकटकी लगाए एक आशा भरी निगाह लिए अपने बेटों का इंतज़ार करती। उसे हर आने वाले कल पर भरोसा था। उसे हर आने वाले कल पर भरोसा था।

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चार दीवारी

चार दीवारी की सोच दफ़न कर देती है नया कर पाने की उम्मीद कुएं के मेंढक की परछाई घुमाती रहती है सुइयों को उन्हीं घिसी पिटी राहों पर उसी थकी हारी चाल से क़दमों का वही सीमित-सा सफ़र

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इंतज़ार

'एक बार सुनाई नहीं देता। मेरी न मां है न बाप। तुम किसे मनाओगे? उस दानवी भाई को या फिर उस चुड़ैल जैसी भाभी को जिन्होंने पूरे घर को मेरे लिए एक जेल से भी बदतर बना दिया। पहले तो मार-मार कर मुझे अधमरा कर दिया और मेरा विश्वास न करके लोगों की बातों पर विश्वास करते रहे।'

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विज्ञापन और नारी

   -पवन चौहान औद्योगिक क्रांति के कारण जैसे-जैसे एक ही वस्तु के विभिन्न रूपों का उत्पादन होने लगा और उपभोग के लिए नई-नई वस्तुएं पैदा की जाने लगीं वैसे-वैसे विज्ञापन का महत्त्व बढ़ता चला गया। उत्पादक के लिए यह ज़रूरी हो गया कि वह अपनी वस्तुओं की जानकारी उपभोगताओं तक पहुंचाए। इसका एकमात्र माध्यम विज्ञापन ही था। आरम्भ में विज्ञापन ...

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उन्हें भी है आपके सहारे की ज़रूरत

  -पवन चौहान जब बच्चे छोटे होते हैं तो मां-बाप उनका हाथ पकड़कर उन्हें चलना सिखाते हैं। जब वे गिरने लगते हैं तो उन्हें सहारा देकर मां-बाप चोट से बचाते हैं। जब बच्चे को नींद नहीं आती तो उसे मां लोरियां गा कर सुलाती है। बच्चे की बीमारी में रात-रात भर जागकर मां-बाप भगवान से उसके स्वस्थ होने की कामना ...

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संयुक्‍त परिवार का टूटता तिलिस्म

  -पवन चौहान नैतिकता की पहली पाठशाला परिवार को माना जाता है। लेकिन परिवारों के बिखराब के साथ ही नैतिकता, सामाजिक नियमों व कानूनों, रहन-सहन में भी बहुत बदलाव आ चुका है। यदि वर्तमान संदर्भ में देखा जाए तो संयुक्त परिवारों का अस्तित्त्व धुंधला-सा हो गया है। संयुक्त परिवारों के मज़बूत स्तंभों के ढहते ही समाज का सारा ढांचा गड़बड़ा ...

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