काव्य

कविता

मजबूरी, लाचारी लिख हां, रुदाद हमारी लिख ग़़ै़ै़ै़ै़रों को इलज़ाम न दे अपनों की अय्यारी लिख सोच जो हल्की है तो क्या ग़ज़लें भारी-भारी लिख

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वेदना

ओ निर्दोष पंछी कसाई की मुट्ठी में भिंची तेरी कोमल ग्रीवा और घुटी दबी चीखों के बीच असहनीय पीड़ा को झेलती तुम्हारी देह की वह तड़प और कातर आंखें मुझे अब तक याद हैं

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जज़बात

आज भी जी भर आता है उस दहलीज़ से क़दम बाहर रखते हुए कितना कुछ ले आती हूं साथ कुछ धुले-धुले से जज़्बात मुस्कुराती हुई कुछ यादें और बहुत बुज़ुर्ग हो चुकी वो दो जोड़ी आंखें

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मैं क्या हूं

ज़िंदगी के आख़िरी पड़ाव में नज़र आई ज़िंदगी की संकरी गलियां, पथरीले रास्ते भीगी छत और गर्म लू से कई हादसे क्यूं आख़िर क्यूं सबकी उम्मीदें टिक जाती इक औरत पर

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अंधेरा

तुम क्यों बार-बार अंधेरे में, मेरे दिल के इक कोने से आवाज़ देते हो मुझे दौड़ती हूं चहुं ओर क्योंकि गूूंजती है तुम्हारी आवाज़

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दस्तक

ना हुई कोई आहट ना नज़र कोई आया क्यों लगा जैसे किसी ने बुलाया... यादों के बगीचे में कुछ पत्तियां सरसराईं खुशबू कुछ गुलाबों की मेरे होठों पे मुस्कुराई मानों दी किसी ने दस्तक

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डबल रोल

कवि गोष्ठी का आयोजन बड़ी धूम-धाम से हुआ कवि थे पचास चांदनी रात का था उजास मंच था, माइक था, पत्र था, पुष्प था बस एक ही कमी थी श्रोता नहीं था।

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मायका

घर से कोसों दूर ब्याह दी गई थी बूढ़ी हो गई थी अब पर कभी-कभार हवा के झोंके की तरह उसे याद आती थी पीहर के हर इंसान की

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ज़ख़्म

देख सकते हो तुम मेरे बदन पर उसके शब्दों के दिए ज़ख़्म जो सिर्फ़ रिसते हैं रोते हैं, चीखते हैं पर उन्हें सहलाने वाला कोई नहीं।

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कौन करे कुछ

मैं, निहारा करता हूं चांद को...अपलक लेकिन माशूक का चांद सा चेहरा... नहीं मुझे नज़र आते हैं बूट पॉलिश करते वो बच्चे

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