काव्य

बेबसी

हिचकिचाते हुये धीमे-धीमे मुस्कुराते हुये मैंने उसके सामने रख दी थी अपने हृदय की कोरी किताब कुछ भी लिख देने के लिए

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शहीद की पत्नी

जब ताबूत से बाहर शहीद का पार्थिव शरीर निकाला गया भीगी पल्कों से नन्हें-नन्हें बच्चों को संभाला गया मातम के माहौल में डूबा था शहर सारा चारों तरफ़ मचा था दर्द का कोहराम गहरा

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मगर

वो शोख़ हवाएं वो पत्तों की सरसराहट फूलों की भीनी-भीनी खुशबू वो भौंरो की गुनगुनाहट मेरा चौंक जाना सुनकर किसी की पदचाप वो पहाड़ की पगडण्डी के किनारे तुम्हारा छोटा सा घर

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अधिकार

मैं स्वतन्त्र हूं, स्वाधीन हूं, आजा़द हूं मुझे संविधान कुछ मौलिक अधिकार देता है भिन्न-भिन्न प्रकार की विभिन्नताओं, विविधताओं और असमानताओं के बीच समानता का अधिकार

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बेेेेआबाद घर

न जाने कितने सालों बाद वीरान सूनी-सूनी दीवारें निहार रही हैं आने वालों की राहें खूब सजी-संवरी चमक दमक रही हैं न जाने कब से इस एक मंज़िला पीले घर की दीवारें न जाने कब से इस घर की छत पर अनबुहारी पड़ी हैं

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एक और लड़ाई

मौत ठहर जा तू कुछ रोज़ ओर ज़रा क्योंकि मुझे लड़नी है अभी एक लड़ाई और… ज़िंदगी से लड़नी है लड़ाई उन अत्याचारियों से जो क़त्ल कर देते हैं

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नहीं

बहुत बार चाहता हूं भूल जाऊं बीते दिनों को भूल जाऊं बीते दिनों की बातों को भी कई बार यह भी चाहा है कि भूल जाऊं उन चेहरों को जो अजनबी होते हुए भी अपने लगते थे

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हमारा पिछड़ापन

लाख कोशिश करो तुम हमसे छीन नहीं सकते हमारा पिछड़ापन मानद उपाधि की तरह प्राप्त पिछड़ावर्ग हमें बहुत पसंद बोले तो छीन पाया क्या कोई माई का लाल

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ए नए साल

ए नए साल तू लाया क्यों नहीं साथ सुलगती नदियों के लिए नीर उदास खड़े पेड़ों के लिए गीत मुरझाते फूलों के लिए ताज़गी वीरान आंखों के लिए खुशी हंसी विहीन होंठों के लिए हंसी।

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