साहित्यक शख्सियतें

औरत की आज़ादी के लिए आवाज़ उठाई है डॉ.तस्‍लीमा नसरीन ने

भारत ही नहीं विश्‍व के कई अन्य देशों में भी औरत को दोयम दर्जे का प्राणी समझकर उसे मात्र भोग की वस्तु समझा गया है। उस पर धार्मिक, सामाजिक, नैतिक तथा राजनैतिक परम्पराओं की आड़ में जो ज़ुल्मोसितम ढाए जा रहे हैं वे किसी से छिपे नहीं हैं। औरत की इस दुर्दशा तथा उस पर हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़ ...

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स्वातंत्र्य आंदोलन में साहित्यकारों का योगदान

सुरेन्‍द्र सिंह चौहान काका सर्वप्रथम हम नमन करते हैं भारत के उन समस्त ज्ञात-अज्ञात शहीदों को जिन्होंने स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राण उत्सर्ग कर दिये। स्वतंत्रता आन्दोलन भारतीय इतिहास का वह युग है जो पीड़ा, कराहट, कड़वाहट, दंभ, आत्मसम्मान, गर्व, गौरव तथा सबसे अधिक शहीदों के लहू को समेटे है। स्वतंत्रता के इस महायज्ञ में समाज के प्रत्येक वर्ग ...

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नम शब्दों की आबशार-दलीप कौर टिवाणा

मुझे अंदेशा-सा हुआ, जिसे मैं मिलकर आया था, शायद यह कोई दूसरी दलीप कौर थी। वहां दीवारों पर लटकती हुई पेंटिंगज़ नहीं थी। वहां पर न तो कोई काग़ज़ था और न ही कोई पैॅन।

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एक खुशबू थी अमृता प्रीतम

अमृता ने अपनी जीवन की अन्तिम कविता जो उसने 2002 में अपने हर पल के साथी इमरोज़ के लिए लिखी थी, में उससे अपने पुनर्मिलन की हार्दिक इच्छा यूं अभिव्यक्‍त की है:- “मैं तुझे फिर मिलूंगी कहां? कैसे? मालूम नहीं

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हरिवंश राय बच्चन

कल मुरझाने वाली कलियां हंस कर कहती हैं मग्न रहो, बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो

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हिन्दी में नारी स्वचेतना एवं सृजनात्मकता

-रमेश सोबती पुराने ज़माने में नारी को पूजनीय स्थान प्रदान किया गया था। स्त्रित्व-मातृत्व एवं देवत्व, इन तीनों को एक श्रेणी में रख कर सम्मान करना भारत की पारंपरिक संस्कृति है। भारत की प्राकृतिक संपदा और महत्व को हमारे पूर्वजों ने स्त्री के रूप में ही रखा, यहां तक कि उन्होंने विद्या के लिए ‘सरस्वती‘ को वन-संपत्ति के लिए ‘देवी-लक्ष्मी‘ ...

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