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पत्रकारिता की पौध

-माधवी रंजना पत्रकारिता के गरिमापूर्ण धंधे से उपजी शौहरत व सुविधा सम्पन्नता के आकर्षण से उग रही आधुनिक पत्रकारिता के नायकों की पौध आजकल अपनी मूल जाति से अलग हो कर कई उपजातियों में विभक्त हो गई है। पत्रकारिता की इस नई पौध-पनीरी से असली पत्रकार छांटना कोई सरल कार्य नहीं। नई पौध-पनीरी के वैज्ञानिक विश्लेषण से इस जाति की ...

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बापू की हत्या 30 जनवरी 1948 को नहीं हुई थी

– दीप ज़ीरवी मोहन दास कर्मचन्द गांधी व गुजरात, गुजरात व भारत एक दूसरे से भिन्न नहीं है यह शाश्वत सत्य है, जैसे यह सत्य है वैसे ही यह भी सत्य है कि बापू की हत्या 30 जनवरी 1948 को नहीं हुई थी। ! ! ! आश्चर्य मत कीजिए। किसी भी व्यक्ति को मारने के लिए केवल उसका देहांत ही ...

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तलाश का सफ़र

 -दलबीर चेतन चारों तरफ़ शोक-सा बना हुआ था कि श्रद्धामठ डेरे के स्वामी प्रकाश नंद नहीं रहे। ख़बर सुनते ही श्रद्धालु एक ख़ास तरह के मानसिक संताप में ग्रस्त हो गए। वह उनके साथ, उनकी शख़्सियत के साथ, उनके प्रवचनों के साथ श्रद्धा की पूर्णतः तक जुड़े हुए थे वे उनकी मृत्यु की ख़बर सुन कर स्तब्ध हो गए। इस ...

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कुदरत का अदभुत करिश्मा है औरत

-धर्मपाल साहिल दुनिया भर में औरत शब्द में आज भी उतना ही जादू क़ायम है, जितना सदियों पूर्व था। हज़ारों वर्ष बीत गये। समाज बदले, व्यवस्थाएं बदली, सभ्यताएं बदलीं। धार्मिक जनून हावी हुआ। विज्ञान ने प्रगति के शिखर छुए। राजनैतिक उथल-पुथल हुई। धरती पर आए बड़े-बड़े परिवर्तनों के बावजूद औरत शब्द एक ऐसा अद्भुत करिश्मा बना हुआ है, जो दिन ...

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जब लें भाग फ़ैंसी ड्रैस प्रतियोगिता में

– नरेन्द्र देवांगन रिंकी ने स्कूल की फ़ैंसी ड्रैस प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। वह आदिवासी महिला बनी थी। एक आदिवासी महिला जो कुछ पहनती है, वह सब पहनकर वह स्टेज पर गई। लेकिन उससे एक बड़ी ग़लती हो गई। उसने साड़ी उस तरीक़े से पहनी थी, जिस तरह एक शहर की महिला पहनती है जबकि आदिवासी महिलाएं अलग तरीक़े से ...

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सोने का अंदाज़ कैसा है जनाब

-संदीप कपूर कभी औंधे, कभी चित्त तो कभी करवट लेकर सोते समय हम भले ही सब कुछ भूल जाते हैं लेकिन हमारे सोने का हर ढंग दूसरों को हमारे बारे में सब कुछ बता सकता है। यक़ीन नहीं आता न? लेकिन यह सच है कि वैज्ञानिकों ने सोने की हर मुद्रा पर व्यक्तित्व का खुलासा कर डाला है। आइए हम ...

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फ़र्क़ बहुत है अलबत्ता

– दीप ज़ीरवी हिन्दी चलचित्र सत्ते पे सत्ता में एक गीत था कि …. दुक्की पे दुक्की हो या सत्ते पे सत्ता ग़ौर से देखा जाए तो बस है पत्ते पे पत्ता कोई फ़र्क़ नहीं अलबत्ता वह फ़िल्म थी, वह चलचित्र था भी हास्य प्रधान किन्तु भाषा हास्य अथवा उपहास का विषय नहीं, सौहार्द एवं गंभीर चिन्तन की मांग करती ...

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मफ़लर

-सुरेन्द्र कुमार ‘अंशुल’ ऑफ़िस जाने के लिए मैं तैयार हो चुका था। रूमाल लेने के लिए मैंने अलमारी खोली तो मेरी नज़रें अलमारी में कपड़ों के नीचे झांकते एक ‘पैकेट’ पर पड़ी। मैंने पैकेट बाहर निकाला और खोल कर देखा तो उसमें एक खूबसूरत मफ़लर था। मैंने धीरे से उस पर हाथ फिराया। प्यार की एक अद्भुत अनुभूति का मुझे ...

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मंझदार

“बाई जी! कुछ खाने को दे दो बाई।” पीछे से आये कोमल स्वर ने मुझे चौंका दिया! मैं बहुत देर से झील की नैसर्गिक सुन्दरता को निहार रही थी। उसकी आवाज़ ने मेरी एकाग्रता तोड़ दी, मैंने पीछे मुड़कर देखा तो वह मेरे पैरों में झुक गई। उसने फिर रटा-रटाया वाक्य दोहराया। “अरे! पैर तो छोड़।” मैं दो क़दम पीछे ...

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