शैलेन्द्र सहगल

नेबर्स एनवी, ऑनर्स प्राईड’ के चक्रव्यूह में फंसा उपभोक्‍ता

मगर वक़्त और दुनिया के साथ चलने वाला, उपभोक्‍ता भेड़चाल में शामिल हो सिर्फ़ प्रचारित ब्राण्ड महंगा होने के बावजूद ख़रीदेगा। क्योंकि विज्ञापन द्वारा उसका माईण्ड ब्राण्ड माइन्डिड हो जाता है।

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प्रथाओं की ज़ंजीर लोक लाज की ओट में चल रहा रिश्तों का कारोबार

उसके आश्‍चर्य की उस वक्‍़त कोई सीमा नहीं रहती जब संबंधियों के लालची न होने पर भी उसका बजट रस्मों-रिवाज़ों के हाथों ही लम्बा खिंचता चला जाता है।

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हमें भी तो चाहिए एक मुट्ठी आसमान

जिन परिस्थितियों से निकलने के लिए वह विवाह न करने का संकल्प लेती है, यह समाज उसके समक्ष उन परिस्थितियों से भी कहीं बदतर स्थितियां उत्पन्न कर देता है।

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स्त्री का जीवन एक कसौटी

  –शैलेन्द्र सहगल अकसर यह कहा जाता है कि दुनिया के सारे मर्द जोरू के गु़लाम होते हैं। क्या वास्‍तव में ऐसा है ? विवाह पूर्व जिसे मर्द दिल की रानी समझता है, उसके घर में अवतरित होते ही वह रानी से नौकरानी में कैसे तबदील हो जाती है ? ऐसा उन औरतों के साथ होता है जो भारतीय नारी ...

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वेश्यावृत्ति नारी जाति पर कलंक है

– शैलेन्द्र सहगल औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया। अबला नारी तेरी अजब कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी। वक्‍़त बदल गया दुनिया बदल गई। नहीं बदली तो औरत के वजूद से जुड़ी यह स्थितियां नहीं बदली। वो देवदासी भी बनी तो भी देह उसे परोसनी पड़ी, देह व्यापार का कलंक मानव सभ्यता ...

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औरत को इंसान होने का अहसास जगे तो

   -शैलेन्‍द्र सहगल हमारे बुज़ुर्ग अक्सर यह कहते आए हैं कि बेटियां तो राजे महाराजे भी अपने घर नहीं रख पाए, शादी तो बेटी करनी ही पड़ेगी! गोया बेटियां बहू बनने के लिए ही पैदा होती हैं। जिस मां की कोख से वो जन्म लेती है उसके लिए भी अगर वो पराया धन ही रह जाएं तो इस जहां में ...

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टूटे संयुक्‍त परिवार पड़ी संस्कृति में दरार

-शैलेन्द्र सहगल संस्कारों के बिना संस्कृति उस कलेंडर की भांति है जो उस दीवार पर टंगा रह जाए जिस घर को पुश्तैनी सम्पत्ति के रूप में जाना तो जाए मगर रहने के लिए, जीने के लिए अपनाया न जाए उसे ताला लगाकर उसका वारिस नए और आधुनिक मकान में रहने चला जाए। कलेंडर बनी संस्कृति में उन तिथियों की भरमार ...

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रिश्तों का भंवर : बदलते परिवेश में रिश्ते

-शैलेन्द्र सहगल वैसे तो सृष्‍ट‍ि का प्रथम सम्बन्ध अपने रचयिता से ही माना जाना चाहिए मगर इन्सान अपनी ज़िन्दगी की स्लेट पर रिश्तों की इबारत लिखते समय जो प्रथम शब्द मुंह से उच्चारित करता है वह उसका अपनी मां से मातृत्व का वो अमर रिश्ता स्थापित करता है जिसके लिए उसकी मां उस पर सदैव अपना सर्वस्व न्योछावर करने के ...

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