साहित्य सागर

क़िस्तों में दहेज़

अपने बेटे के विवाह के लिए दहेज़ मांगने पर जब प्रशांत की सामाजिक प्रतिष्ठा गिरने लगी। तब उसने यह मांग छोड़कर नयी शर्त रखी कि लड़की सरकारी नौकरी करती हो।

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तुम्हीं तो हो

तुम्हीं तो हो जिसे मिल कर लगा मिलना चाहता था जिसे मैं पिछले कई जन्मों से तुम्हीं तो हो जिसे देख कर आंखों में जगमगाये असंख्य तारे लगा बिना देखे ही देख ली सारी दुनियां

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रचनाकार हूं भाई

क्या देश में सिनेमाघरों, होटलों, टी.वी. चैनलों, मयख़ानों और क्रिकेटरों की कमी है कि लोग रचनाएं पढ़कर सुकून प्राप्त करना चाहेंगे? रही दिलो-दिमाग़ की शान्ति की बात तो गीता, रामायण, वेद पुराण आदि पुस्तकें शो-केस में स्थापित करने के लिए हैं?

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भरपाई

मैं दहेज़ के ख़िलाफ़ हूं बेटी। बेटे की शादी में मैं दहेज़ नहीं लूंगा और दहेज़ आया भी तो उसका उपयोग तुम्हारी शादी में करने की सोच ही नहीं सकता। सोचो, जो तुम्हारी भाभी आयेगी उसके मन पर क्या गुज़रेगी? मैं ऐसी भरपाई की बात सोच ही नहीं सकता।

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लेखक की पत्नी होने का सुख

सुहागरात के समय ही मुझे अपनी फूटी क़िस्मत का पता चल गया था। जब ये मेरा घूंघट उठा कर बोले थे, 'प्रियतमे आज की यामिनी भी उज्जवल है। तुम्हारे शुभ आगमन से मेरे हृदय की कालिमा दूर भाग गई है।'

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अन्तिम पुकार

तेगा तो लड़की को क़त्ल करने के लिए तैयार हो गया था। तलवार म्यान से बाहर निकाल ली। बोहड़ का बापू टहल सिंह संयोगवश मौक़े पर पहुंच गया। उसने कहा बेवकूफ़ आदमी, क्यों गऊ हत्या कर रहे हो? .... लड़की की ओर देख।

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साथी चलो

साथी चलो हम वहां चलें जहां प्यार ही प्यार हो दुलार हो सहयोग हो नफ़रत का न साया हो झगड़े का न नाम हो साथी चलो

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दान

मैं बचपन से पढ़ाई में अच्छा था लेकिन घर की परिस्थितियां अनुकूल न थीं। मेरी 2 बहनें, दादा-दादी और एक बुआ भी हमारे साथ थी। पिताजी अकेले कमाने वाले थे। रात-दिन काम करते। मैं भी समय मिलते ही उनकी मदद करता।

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आओ दीप जलाएं

माना रफ़तार-ए-जिंदगी में नहीं तुमको हमको फुरसत मगर कब छिपी है किसी से इन्सानियत की फ़ितरत

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