साहित्य सागर

गुड्डी कहां है

बचपन मेरी ज़िंदगी से तो निकल गया था, मगर बचपन दिल से नहीं निकला था- जिसकी वजह से दिनभर मां की टोका-टाकी झेलनी पड़ रही थी। खुल कर हंस भी लेती तो मां की टोक उसे सांप की तरह डसती थी- “गुड्डी, न जाने तेरा बचपना कब जाएगा, यह सब ससुराल में तो नहीं चलेगा।” कभी दिन में देर तक ...

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फ़र्क़ बहुत है अलबत्ता

– दीप ज़ीरवी हिन्दी चलचित्र सत्ते पे सत्ता में एक गीत था कि …. दुक्की पे दुक्की हो या सत्ते पे सत्ता ग़ौर से देखा जाए तो बस है पत्ते पे पत्ता कोई फ़र्क़ नहीं अलबत्ता वह फ़िल्म थी, वह चलचित्र था भी हास्य प्रधान किन्तु भाषा हास्य अथवा उपहास का विषय नहीं, सौहार्द एवं गंभीर चिन्तन की मांग करती ...

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मफ़लर

-सुरेन्द्र कुमार ‘अंशुल’ ऑफ़िस जाने के लिए मैं तैयार हो चुका था। रूमाल लेने के लिए मैंने अलमारी खोली तो मेरी नज़रें अलमारी में कपड़ों के नीचे झांकते एक ‘पैकेट’ पर पड़ी। मैंने पैकेट बाहर निकाला और खोल कर देखा तो उसमें एक खूबसूरत मफ़लर था। मैंने धीरे से उस पर हाथ फिराया। प्यार की एक अद्भुत अनुभूति का मुझे ...

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मंझदार

“बाई जी! कुछ खाने को दे दो बाई।” पीछे से आये कोमल स्वर ने मुझे चौंका दिया! मैं बहुत देर से झील की नैसर्गिक सुन्दरता को निहार रही थी। उसकी आवाज़ ने मेरी एकाग्रता तोड़ दी, मैंने पीछे मुड़कर देखा तो वह मेरे पैरों में झुक गई। उसने फिर रटा-रटाया वाक्य दोहराया। “अरे! पैर तो छोड़।” मैं दो क़दम पीछे ...

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