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ओ बटोही

ओ बटोही कविता पथ के कहां चला शब्दों का रथ ले भाव प्रवण कविताएं तेरी चपल-चपल ललनाएं तेरी गोरी के नूपुर-सी गुञ्जित भोर सुहानी जैसी सुरभित

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कभी-कभी मन करता है

कभी-कभी मन करता है सोई हुई रात के तन से तारों की चादर उतार दें दिन भर के डलते सूरत को शाम ढले किसी दरिया में डुुबो दें

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पारो खुश है

मैं कुछ क़दम पीछे लौट उन आवाज़ों को सुनने लगी जिन्होंने मुझे हिलाकर रख दिया था।'हमारे खानदान पर कलंक है यह पारो।' 'पैदा होते ही मर क्यों न गई।' उसके मायके के आंगन में गूंजती ये आवाज़ें अब पारो के मन से टकराती होंगी तो उसे कैसा-कैसा लगता होगा।

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निर्णय

उसके बापू ने उससे पूछा कि क्या हुआ। पर बोली कुछ नहीं, कुछ भी नहीं। बिना कहे सब स्पष्ट तो था...। ‘तन पर कपड़े पूरे नहीं पड़ रहे थे। जिन हाथों में रोटी थमी थी, उन्हीं हाथों से अब तन ढांपने का काम लिया जा रहा था। सिर से चुनरी उड़ चुकी थी।

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यात्रा पर जाने से पहले- कुछ ज़रूरी टिप्स

होटल में ठहरने से पहले उसकी शर्तों को ठीक तरह से समझ लें। भीड़-भाड़ के दिनों में पहले से ही होटल में आरक्षण कराकर चलें तो अच्छा होगा। अगर किसी हिल स्टेशन पर आपके विभाग की ओर से होटल या गेस्ट हाउस बनाया गया हो तो उसी में ठहरें।

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वर्कशॉप का वाक़या

गुणा मोटर मैकेनिक है। गुणा आज परेशान है। डाकिया उसे एक चिट्ठी थमा गया है। शिक्षा विभाग के निदेशक की ओर से यह चिट्ठी आई थी। लिखा था, ‘नवसाक्षर सरल लेखन पुस्तक निर्माण दस दिवसीय कार्यशाला नैनीताल में है। आप सादर आमंत्रित हैं।’

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चक्कर दोस्ती का

दोस्त अच्छा हुआ तो आप को बना सकता है, ख़राब हुआ तो बिगाड़ सकता है। यह बात लड़के-लड़कियों दोनों पर आधारित है और दोस्ती समलिंगी हो या विषम-लिंगी, दोनों में सच है।

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चिमटा

चिमटा ख़रीदने की सोच रही है मां पिछले कई दिनों से पर अक्सर ज़रूरतेंं बड़ी हो जाती हैं चिमटे से जलती हैं मां की अंगुलियां अक्सर रोटियों सेंकते हुए

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नये ज़माने के लोग

पिताजी अब या तो बोलते नहीं या फिर बहुत बोलते हैं तभी अखरते हैं इतना हमें लगता है या ऐसा है ही यक़ीनन हमारे बीच वर्षों का इतना अंतराल

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डेटिंग से डेज़ी़ी चेन तक

आधुनिकता की आंधी में पुराने महलों का ढहना लाज़मी है। लेकिन सवाल यह उठता है कि इस आंधी में स्थिरता और अडिगता के लिए जो रास्ते इख़्तियार किए जा रहे हैं क्या वह आने वाले तूफ़ानों का सामना कर सकेंगे।

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