साहित्य सागर

पढ़ाई

आज दिव्या दोपहर में अपने कमरे में गई, लेकिन अभी शाम के 8 बजने को आये, बाहर नहीं निकली। ये बच्ची हमारे पड़ोस में ही रहती है। मैं अपना काम निबटाकर बाहर निकली तो उसकी मम्मी से राम सलाम हुई। वो मुझे आज कुछ खिन्न सी नज़र आई।

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ओ बटोही

ओ बटोही कविता पथ के कहां चला शब्दों का रथ ले भाव प्रवण कविताएं तेरी चपल-चपल ललनाएं तेरी गोरी के नूपुर-सी गुञ्जित भोर सुहानी जैसी सुरभित

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कभी-कभी मन करता है

कभी-कभी मन करता है सोई हुई रात के तन से तारों की चादर उतार दें दिन भर के डलते सूरत को शाम ढले किसी दरिया में डुुबो दें

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पारो खुश है

मैं कुछ क़दम पीछे लौट उन आवाज़ों को सुनने लगी जिन्होंने मुझे हिलाकर रख दिया था।'हमारे खानदान पर कलंक है यह पारो।' 'पैदा होते ही मर क्यों न गई।' उसके मायके के आंगन में गूंजती ये आवाज़ें अब पारो के मन से टकराती होंगी तो उसे कैसा-कैसा लगता होगा।

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निर्णय

उसके बापू ने उससे पूछा कि क्या हुआ। पर बोली कुछ नहीं, कुछ भी नहीं। बिना कहे सब स्पष्ट तो था...। ‘तन पर कपड़े पूरे नहीं पड़ रहे थे। जिन हाथों में रोटी थमी थी, उन्हीं हाथों से अब तन ढांपने का काम लिया जा रहा था। सिर से चुनरी उड़ चुकी थी।

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वर्कशॉप का वाक़या

गुणा मोटर मैकेनिक है। गुणा आज परेशान है। डाकिया उसे एक चिट्ठी थमा गया है। शिक्षा विभाग के निदेशक की ओर से यह चिट्ठी आई थी। लिखा था, ‘नवसाक्षर सरल लेखन पुस्तक निर्माण दस दिवसीय कार्यशाला नैनीताल में है। आप सादर आमंत्रित हैं।’

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चिमटा

चिमटा ख़रीदने की सोच रही है मां पिछले कई दिनों से पर अक्सर ज़रूरतेंं बड़ी हो जाती हैं चिमटे से जलती हैं मां की अंगुलियां अक्सर रोटियों सेंकते हुए

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नये ज़माने के लोग

पिताजी अब या तो बोलते नहीं या फिर बहुत बोलते हैं तभी अखरते हैं इतना हमें लगता है या ऐसा है ही यक़ीनन हमारे बीच वर्षों का इतना अंतराल

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आज की बहू कभी सास भी तो होगी

अब देखिए न, खूसट (?) सास को इतना तजुर्बा हो तो हो पर वो बातें कहां मालूम जो पढ़ी-लिखी (!!) बहू को मालूम हैं। ये किट्टी पार्टियां, ये सिनेमा, शॉपिंग ज़रूरी (!) हैं। ऐसे में बूढ़ों की देखभाल की सिरदर्दी कौन झेले, ये ननद के नखरे, देवरों की अकड़ कौन झेले।

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नेता जी

नेता जी दे रहे थे भाषण पर भाषण तभी भीड़ में से एक व्यक्ति उठ बोला प्रभु! भाषण ही सुनाओगे, या राशन भी दिलवाओगे?

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