साहित्य सागर

कृष्ण वंदना

दरस दिखादे तरस तू खा ले मुझपे मेरे कन्हैया उम्र बीत गयी अब तो पार करदे मेरीी नैया हर प्राणी के स्वर में मोहन बजती तेरी मुरलिया मेरे मन के भाव भी समझो कृपा करो सांवरिया

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एक्स-रे

पहले कौन-सा ‘लुच्चपुना’ नहीं होता था। घर के एक लड़के का विवाह होता था और बाक़ी सभी भाइयों की वह सांझी ‘बीवी’ बन जाती थी। सरेआम सभी को पता होता था। कौन-कौन सा गुनाह नहीं हुआ है पहले, और अब क्या विचित्र हो रहा है? अब सम्भवतः पहले से कुछ कम ही हुआ हो।

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भूख

क्या इस बात का पता नहीं था चला कि वह घर बेटी के लिए नर्क होगा और संधू सभी के बारे में यही सोचेगा कि और किसी के कंधे पर सिर ही नहीं, “सोचने और कहने का काम केवल उसी ने करना है।” -क्या आपको यह संकेत नहीं था मिला कि संधू का मुंह अभी और खुलना था और भूख ज़्यादा बढ़नी थी।

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स्वर्ग जाएं हमारे दुश्मन

ज़रा सोच स्वर्ग में हमें क्या वे सुविधाएं मिल सकती हैं। जिन्हें हम इस लोक में पा रहे हैं। स्वर्ग से ज़्यादा सुविधाएं तो यहां मृत्युलोक में उपलब्ध हैं। दस-बीस हज़ार रुपयों की डिग्री लाओ। 25-30 हज़ार किसी नेता के माथे मारो, सरकारी नौकरी पाओ और सारी उम्र जी भर खाओ। स्वर्ग में तो वर्षों गुरुओं के आगे घुटने रगड़कर भी कोई मानद उपाधि तक नहीं मिलती

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नई रीत

शादी के बाद बिटिया ने जब घर से विदा ली तो मां ने अपने आंसुओं से एक नज़म उसकी हथेली पर लिख दी

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पहचान

मैं पति के नाम से या…. फिर उसके जाये बच्चों के नाम से जानी पहचानी जाती हूं।

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ख़ाली प्लाट

शर्मा जी, शर्म करें कुछ। मैं आपकी बेटी जैसी हूं। इश्क कितना भी अंधा हो पर इतना पागल नहीं होता कि बाप की उम्र के आदमी के साथ किया जाए। अगर कोई करता भी हो तो मजबूरी हो सकती है, इश्क नहीं….।

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विकलांग

मौन दर्शकों के हजूम में एक दुखियारी मां की चीखें ही सर्वत्र गूंज रही थी … कोई बचा ले मेरे बुढ़ापे के सहारे को … अरे! बच्चा आग में ज़िंदा जल जाएगा, कोई तो आग से निकाल कर ले आए उसे … आग की लपटें भयंकर होती जा रही थीं।

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क़त्ल

मां तेरी महानता की परिधी के ओर-छोर आस-पास तक कहीं भी नहीं थी निर्दयता फिर तू निर्दयी बनी कैसे?

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