साहित्य सागर

लफ़्जे ब्यां

एक भौंरा गुलबदन को चूम कर फिर उड़ गया। एक भौंरा था जो ज़िद्दी गुलबदन पर अड़ गया।। हम भला रोने लगे क्यों इक मुसाफिर था गया। वो तो झोंका था हवा का आंख में कुछ पड़ गया।।

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गणेश न मिले रे पूजन को गणेश

‘गणेश जी। आप यहाँ। मैं आप को मारा-मारा फिरता हुआ कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढ रहा था। कम से कम मन्दिर में तो रहा करो नाथ।‘मन्दिर में? तुम रहने दो तब न।’

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सूरज की तलाश

नहीं जानती, उगा होगा, किसी अनजाने देश में, सतरंगी सूरज। इन्द्रधनुशी आभा से खिला होगा, प्रकृति का कण-कण।

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उसकी आंखें

उसकी शर्माती आंखों में है अदम्भ साहस भी क्योंकि उसने कभी नहीं माना कि शर्म का पर्यायवाची डर होता है उसकी सकुचाती आंखों में अधूरापन भी है

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नए वर्ष का प्रवेश द्वार

जी हां, सबकी रग-रग में बस चुका, मैं हूं भ्रष्टाचार। नववर्ष में भी बढ़ेगा अभी मेरा परिवार। झट से खोलो द्वारपाल, मेरे लिए नववर्ष का द्वार।’

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