साहित्य सागर

मातृत्व

यह बात सुनकर किरण भी ग़ुस्सा होते हुए बोली, 'आप यह क्यों नहीं कहते कि आप मुझे यहां पत्नी बनाकर नहीं नौकरानी बनाकर लाए हैं?'

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रास्ता

होश संभलते ही शुरू हो गया चलना ज़िन्दगी के रास्ते की ओर, बिन परवाह किए, गरम हवाओं की, सरद थेपड़ों की बर्फीले टीलों की

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रंगेहिना

मैं ने कब अपनी वफ़ाओं का सिला मांगा था? एक हल्का-सा तबस्सुम ही तेरा मांगा था। क्या ख़बर थी मेरी नींदें ही उजड़ जाएंगी मैं ने खोए हुए ख़्वाबों का पता मांगा था।

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चांद के मुक़ाबिल

न जाने अपनी यादों में कब धूप-सा वो बिखर गया इक आहट तक न हुई और वो दिल में उतर गया इन्हीं रास्तों पे मुझसे इक बार वो मिला था यही सोचकर मैं उस मोड़ पर ठहर गया

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रावण खुश हुआ मित्र

‘बस एक ही! देश की तरह रावण बनाने वाले भी जल्दी में थे क्या? आग लगे ऐसी जल्दी को जो, नाश का सत्यानाश करके रख दें।’ ‘महाशय आप तो दशानन थे न? फिर अब के.....’

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विश्वास का खून

‘राहुल...’, शब्द ही निकला था और मुन्नी की रूलाई फूट पड़ी थी। रुकी तो वह भरे स्वर में बोली थी- ‘कहां थे तुम? जानते नहीं तुम्हारी आवाज़ सुनने के लिए हम पल-पल तड़प रहे हैं।

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भगवान् का घर

उसे समझाया गया, “जयन्त को तो कोई शिकायत नहीं। तुझे प्यार करता है। सब ठीक हो जाएगा धीरे-धीरे। चिन्ता मत कर।” सब सुनने के बाद माता-पिता कहते “कैसे रखें ब्याही बेटी को घर।”

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सहनशक्ति

उसने माहौल को विनोदपूर्ण बनाने और घायलों की हौसला-अफ़ज़ाई करने के लिए हंसते हुए कहा, ‘दोस्तो! नक़ली टांग का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इस पर चोट लगने का एहसास नहीं होता।’

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अधूरी ग़ज़ल

खाबों के हंसी ताजमहल बनाए किसने थे, ज़र्द पत्ते गिरे डाली से उठाए किसने थे। किसने भरी थी हामी निगाहे-बेक़रार की, ठोकर पसंद थी किसे पुरसुकून प्यार की।

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