लघुकथा

बहू-बेटी

कपड़ों की तह करती हुई कमला देवी बड़बड़ाती जा रही थी, 'छः बजने को आ गए, पर महारानी जी का कोई पता नहीं। घर न हुआ, सराय हो गई। रात को आ गई और सुबह होते ही बन संवर कर फिर निकल गई।

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आलोचना

दोनों का इंतज़ाम एकदम भिन्न था, जिस भाई के यहां हमारी बारात गई थी, उसकी सारी व्यवस्था एकदम सादी थी जैसा कि देहात का सामान्य आदमी रखता है। इसके विपरीत दूसरे भाई के इंतज़ाम का क्या कहना!

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आंच

'पापा! पापा! अलमारी में से पटाखों के पैकेट निकाल दो न।' बच्चों ने मुझे झंझोड़ते हुए कहा। मैं मौन रहा। 'आख़िर ऐसा क्या है उन पटाखों में जो उन्हें साल भर से रखे बैठे हो।' मुझे चुप देख कर पत्नी ग़ुस्से में बोली।

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वक़्त से डरो

दो पुत्रों और एक पुत्री की मां बीरो को ज़िंदगी में कोई सुख नहीं मिला था। दोनों पुत्र अपना विवाह होते ही दूर-दूर जा बसे थे। मां और बहन किस हालत में हैं उन दोनों ने मुड़ कर भी नहीं देखा। ऐसे में पड़ोस में रह रहे राय बाबू को व्यंग्य बाण छोड़ते हुए ज़रा भी दया नहीं आती थी।

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आमदनी

अन्दर से डॉ. कालरा की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी। वह अपनी नर्स पर बिगड़ रही थी, जिसने हाल ही में उसके क्लीनिक में नौकरी पाई थी, "सुनीता अगर तुम इसी तरह नॉर्मल डिलीवरी करवाती रही तो वो दिन दूर नहीं जब कालरा क्लीनिक बंद हो जाएगा,

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पढ़ाई

आज दिव्या दोपहर में अपने कमरे में गई, लेकिन अभी शाम के 8 बजने को आये, बाहर नहीं निकली। ये बच्ची हमारे पड़ोस में ही रहती है। मैं अपना काम निबटाकर बाहर निकली तो उसकी मम्मी से राम सलाम हुई। वो मुझे आज कुछ खिन्न सी नज़र आई।

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निर्णय

उसके बापू ने उससे पूछा कि क्या हुआ। पर बोली कुछ नहीं, कुछ भी नहीं। बिना कहे सब स्पष्ट तो था...। ‘तन पर कपड़े पूरे नहीं पड़ रहे थे। जिन हाथों में रोटी थमी थी, उन्हीं हाथों से अब तन ढांपने का काम लिया जा रहा था। सिर से चुनरी उड़ चुकी थी।

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इसके बाद

रात बहन ने डॉक्टर भैया को बताया, 'तुम्हारी दवाई का ज़रा भी असर नहीं हुआ, पिता जी की हालत पहले से बेहतर नहीं है, तुम आ जाते तो...' डॉक्टर साहब बीच में बोल उठे, 'मैं अभी नहीं आ पाऊंगा, अभी तो पूरी तरह चार्ज भी नहीं लिया

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विकलांग

मौन दर्शकों के हजूम में एक दुखियारी मां की चीखें ही सर्वत्र गूंज रही थी … कोई बचा ले मेरे बुढ़ापे के सहारे को … अरे! बच्चा आग में ज़िंदा जल जाएगा, कोई तो आग से निकाल कर ले आए उसे … आग की लपटें भयंकर होती जा रही थीं।

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विवशता

“मम्मी! आप मेरी मदद क्यों नहीं करतीं? आप तो अच्छी तरह जानती हैं कि मुझे पढ़ाई का कितना शौक़ है। इसी तरह चलता रहा तो मैं सिनॉपसिस कैसे तैयार करूंगी?” उसकी आंखों में आंसू आ गए। “मैं तेरे भइया से आगे नहीं चल सकती।” मां ने सपाट स्वर में कहा।

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